सत्यनारायण कथा के लिए सम्पूर्ण सामग्री
( १ ) रोली = 1 पै० ( २ ) रक्षा = 3 पै० ( ३ ) पान = 10 पत्ते ( ४ ) सुपारी = 11 नग ( ५ ) पंचामृत = 1 कच्चा दूध 2
दही 3 घी 4 शहद 5 शक्कर ( ६ ) पंचगव्य = इच्छानुसार ( ७ ) तिल 100 ग्रा० ( ८ ) नारियल 1 नग ( ९ )
फूलमाला = इच्छानुसार (१०) दूर्वा 21 नग (११) ऋतुफल मिष्ठान = इच्छानुसार (१२) गंङ्गाजल = इच्छानुसार
(१३) छोटी चौकी 1 (१४) आम के पत्ते 1 टेरी केले के पत्ते 3 नग (१५) काला तिल 50 ग्रा० (१६) अबीर
गुलाल (१७) लौग + इलायची (१८) आधा मीटर सफेद वस्त्र (१९) जनेऊ 11 नग = इत्र 1 शी० (२०)
पञ्चमेवा = 100 ग्रा० (२१) हल्दी 50 ग्रा०
हवन सामग्री
गुगूल 50 ग्रा० = दशाङ्ग हवन 500 ग्रा० = तिल 200 ग्रा० = घी 200 ग्रा० सुखा नारियल 1 नग
श्रीसत्यनारायण-पूजन तथा कथा-श्रवण अत्यन्त पवित्र, पुण्यप्रद और समस्त मङ्गलोंको प्रदान करनेवाला है । बड़े ही उत्साह एवं श्रद्धा-भक्तिसे समन्वित होकर इसका अनुष्ठान करना चाहिये। इससे जीवनमें सत्यकी प्रतिष्ठा स्थापित होती है और भगवान्की विशेष कृपा भी प्राप्त हो जाती है।
पूजन तथा कथा-श्रवण आदिके लिये किसी पवित्र स्थानमें, देवस्थानमें अथवा घरमें सुन्दर मण्डप बनाकर उसे अनेक प्रकारसे अलङ्कत करना चाहिये। चारों ओर भगवान्के सुन्दर विग्रहोंको लगाना चाहिये । मण्डपके मध्यमें
भगवान् सत्यनारायण (श्रीविष्णु भगवान् या शालग्रामशिला) - के लिये एक सिंहासन लगाकर उसपर भगवान्के विग्रहको प्रतिष्ठित करना चाहिये। यथासम्भव केलेके स्तम्भोंसे मण्डपको मण्डित करना चाहिये और भगवती तुलसी देवी (तुलसी वृक्ष)-को भी वहाँ स्थापित करना चाहिये ।।
भगवान् सत्यनारायणके पूजन तथा कथा-श्रवणसे पूर्व कार्यकी निर्विघ्नतापूर्वक सम्पन्नताके लिये प्रारम्भमें भगवान्
गणेश-गौरी, कलश, नवग्रह आदिका पूजन भी करना चाहिये। अतः उसे भी यहाँ संक्षेपमें दिया जा रहा है। पूजनमें यथाशक्ति संक्षेप-विस्तार भी किया जा सकता है।
सर्वप्रथम पूजन आदिकी समस्त सामग्रीको यथास्थान रख ले और पवित्र होकर पवित्र आसनपर पूर्व दिशाकी ओर मुख करके बैठ जाय, रक्षा-दीप जलाकर पूर्वाभिमुख रख ले, तदनन्तर निम्न मन्त्रोंसे तीन बार आचमन करे-
स्वस्त्ययन
हाथमें लिये हुए अक्षत-पुष्पको गणेश और अम्बिकापर चढ़ा दे ।
गणपति और गौरीकी पूजा
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम् । उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम् ॥
भगवती गौरीका ध्यान-
आचमन - गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । शुद्धोदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। (शुद्धोदक - स्नानके बाद आचमनके लिये जल दे।)
वस्त्र- उपवस्त्र-गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । वस्त्रोपवस्त्रं समर्पयामि । आचमनीयं जलं समर्पयामि। (गणेश तथा
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । मुखवासार्थे एलालवंगपूगीफलसहितं ताम्बूलं समर्पयामि । (इलायची, लौंग, सुपारीके साथ ताम्बूल चढ़ाये ।)
दक्षिणा - गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । साद्गुण्यार्थे द्रव्यदक्षिणां समर्पयामि। (दक्षिणा चढ़ाये ।)
पुष्पाञ्जलि -
नानासुगन्धिपुष्पाणि यथाकालोद्भवानि च। पुष्पाञ्जलिर्मया दत्ता गृहाण परमेश्वर ॥
प्रार्थना - हाथमें पुष्प लेकर इस प्रकार प्रार्थना करे-
अथ श्री सत्यनारायण व्रत कथा
पहला अध्याय श्री सत्यनारायणव्रतकी महिमा तथा व्रतकी विधि
व्यास उवाच
ऋषयः ऊचुः
सूत उवाच
नारद उवाच
श्रीभगवानुवाच
नारद उवाच
श्रीभगवानुवाच
नारद उवाच
श्रीभगवानुवाच
बन्धु-बान्धवोंके साथ श्रीसत्यनारायण भगवान्की कथा सुनकर ब्राह्मणको दक्षिणा देनी चाहिये । तदनन्तर -बान्धवोंके साथ ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये । भक्तिपूर्वक प्रसाद ग्रहण करके नृत्य-गीत आदिका आयोजन करना चाहिये । तदनन्तर भगवान् सत्यनारायणका स्मरण करते हुए अपने घर जाना चाहिये। ऐसा करनेसे मनुष्योंकी अभिलाषा अवश्य ही पूर्ण होती है। विशेष रूपसे कलियुगमें, पृथ्वीलोकमें यह सबसे छोटा- सा उपाय है॥ २२–२४॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथाका यह पहला अध्याय पूरा हुआ ॥ १ ॥
दूसरा अध्याय
निर्धन ब्राह्मण तथा काष्ठक्रेताकी कथा
सूत उवाच
ब्राह्मण उवाच
वृद्धब्राह्मण उवाच
ऋषय ऊचुः
सूत उवाच
विप्र उवाच
तीसरा अध्याय
राजा उल्कामुख, साधु वणिक् एवं लीलावती-कलावतीकी कथा
सूत उवाच
साघुरुवाच
राजोवाच
साधुरुवाच
आप लोगोंको प्रारब्धवश यह महान् दुःख प्राप्त हुआ है, इस समय अब कोई भय नहीं है, ऐसा कहकर उनकी बेड़ी खुलवाकर क्षौरकर्म आदि कराया। राजाने वस्त्र, अलंकार देकर उन दोनों वणिक्पुत्रोंको संतुष्ट किया तथा सामने बुलाकर वाणीद्वारा अत्यधिक आनन्दित किया। पहले जो धन लिया था, उसे दूना करके दिया; तदनन्तर राजाने पुनः उनसे कहा-'साधो ! अब आप अपने घरको जायँ'। राजाको प्रणाम करके 'आपकी कृपासे हम जा रहे हैं'-ऐसा कहकर उन दोनों महावैश्योंने अपने घरकी ओर प्रस्थान किया । ४८-५१ ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथाका यह तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥
चौथा अध्याय
असत्य भाषण तथा भगवान्के प्रसादकी अवहेलनाका परिणाम
सूत उवाच
साधुरुवाच
तत्पश्चात् उस दूतने नगरमें जाकर साधुकी भार्याको देख हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा उसके लिये अभीष्ट बात कही-'सेठजी अपने दामाद तथा बन्धुवर्गोंके साथ बहुत सारे धन-धान्यसे सम्पन्न होकर नगरके निकट पधार गये हैं'। दूतके मुखसे यह बात सुनकर वह महान् आनन्दसे विह्वल हो गयी और उस साध्वीने श्रीसत्यनारायणकी पूजा करके अपनी पुत्रीसे कहा-'मैं साधुके दर्शनके लिये जा रही हूँ, तुम शीघ्र आओ।' माताका ऐसा वचन सुनकर व्रतको समाप्त करके प्रसादका परित्याग कर वह (कलावती) भी (अपने) पतिका दर्शन करनेके लिये चल पड़ी। इससे भगवान् सत्यनारायण रुष्ट हो गये और उन्होंने उसके पतिको तथा नौकाको धनके साथ हरण करके जलमें डुबो दिया ॥ २१ - २५/६ ॥
ततः कलावती कन्या न विलोक्य निजं पतिम् ॥ २६ ॥
कन्या (कलावती) भी आकाशमण्डलसे ऐसी वाणी सुनकर शीघ्र ही घर गयी और उसने प्रसाद ग्रहण किया । पुनः आकर स्वजनों तथा अपने पतिको देखा। तब कलावती कन्याने अपने पितासे कहा- 'अब तो घर चलें, विलम्ब क्यों कर रहे हैं?' कन्याकी वह बात सुनकर वणिक्पुत्र संतुष्ट हो गया और विधि-विधानसे भगवान् सत्यनारायणका पूजन करके धन तथा बन्धु-बान्धवोंके साथ अपने घर गया। तदनन्तर पूर्णिमा तथा संक्रान्ति पर्वोंपर भगवान् सत्यनारायणका पूजन करते हुए इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें वह सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) - में चला गया ॥ ३९-४४॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथाका यह चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥ ४ ॥
पाँचवाँ अध्याय
राजा तुङ्गध्वज और गोपगणोंकी कथा
सूत उवाच
महान् प्रज्ञासम्पन्न शतानन्द नामके ब्राह्मण [ सत्यनारायणका व्रत करनेके प्रभावसे] दूसरे जन्ममें सुदामा नामक ब्राह्मण हुए और उस जन्ममें भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। लकड़हारा भिल्ल गुहोंका राजा हुआ और अगले जन्ममें उसने भगवान् श्रीरामकी सेवा करके मोक्ष प्राप्त किया। महाराज उल्कामुख [ दूसरे जन्ममें] राजा दशरथ हुए, जिन्होंने श्रीरङ्गनाथकी पूजा करके अन्तमें वैकुण्ठ प्राप्त किया। इसी प्रकार धार्मिक और सत्यव्रती साधु [पिछले जन्मके सत्यव्रतके प्रभावसे दूसरे जन्ममें] मोरध्वज नामका राजा हुआ। उसने आरेसे चीरकर अपने पुत्रकी आधी देह भगवान् विष्णुको अर्पित कर मोक्ष प्राप्त किया। महाराज तुङ्गध्वज जन्मान्तरमें स्वायम्भुव मनु हुए और भगवत्सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्योंका अनुष्ठान करके वैकुण्ठलोकको प्राप्त हुए। जो गोपगण थे, वे सब जन्मान्तरमें व्रजमण्डलमें निवास करनेवाले गोप हुए और सभी राक्षसोंका संहार करके उन्होंने भी भगवान्का शाश्वतधाम - गोलोक प्राप्त किया । १९ - २४॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथाका यह पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५ ॥
केशवाय नमः । नारायणाय नमः । माधवाय नमः ।
आचमनके पश्चात् दाहिने हाथके अँगूठेके मूलभागसे 'हृषीकेशाय नमः, गोविन्दाय नमः' कहकर ओठोंको पोंछकर हाथ धो ले।
आचमनके पश्चात् पवित्री धारण करे और प्राणायाम करके अपने बायें हाथमें जल लेकर दाहिने हाथसे उसे अपने ऊपर तथा पूजा सामग्रीपर निम्न मन्त्रसे छिड़के-
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
पुण्डरीकाक्षः पुनातु, पुण्डरीकाक्षः पुनातु, पुण्डरीकाक्षः पुनातु ।
यदि गणेश और अम्बिकाकी मूर्ति न हो तो किसी पात्रमें अष्टदल कमल बनाकर सुपारीमें मौली लपेटकर अक्षतपुञ्जयुक्त पात्रपर उसे स्थापित कर ले और हाथमें अक्षत तथा पुष्प लेकर आगे दिया वैदिक स्वस्त्ययन पढ़े-
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभंयावानो विदथेषु जग्मयः । अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह
॥ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः । स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा सस्तनूभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः ॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम् । पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥
अदितिद्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्रः । विश्वे देवा अदितिः पञ्च जना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् ॥
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः । वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म
शान्तिः सर्व शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॥ यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु । शं नः कुरु
प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः ॥ सुशान्तिर्भवतु ॥
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः । लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः । उमामहेश्वराभ्यां नमः । वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः ।
शचीपुरन्दराभ्यां नमः । मातृपितृचरणकमलेभ्यो नमः । इष्टदेवताभ्यो नमः । कुलदेवताभ्यो नमः । ग्रामदेवताभ्यो नमः ।
वास्तुदेवताभ्यो नमः । स्थानदेवताभ्यो नमः । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः । सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः । ॐ सिद्धिबुद्धिसहिताय
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः ।
सुमुखश्चैकदन्तश्च कपिलो गजकर्णकः । लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो विनायकः ॥
धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः । द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि ॥
विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा । सङ्ग्रामे सङ्कटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । प्रसन्नवदन ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥
अभीप्सितार्थसिद्ध्यर्थं पूजितो यः सुरासुरैः । सर्वविघ्नहरस्तस्मै गणाधिपतये नमः ॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके । शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥
वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ । निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ॥
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः ॥
प्रधान सङ्कल्प
हाथमें जल, अक्षत, पुष्प एवं द्रव्य लेकर सङ्कल्प करे-
(क) सकाम — ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणो
द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे बौद्धावतारे भूर्लोके
जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशान्तर्गते अमुकक्षेत्रे विक्रमशके षष्ट्यब्दानां मध्ये अमुकनामसंवत्सरे
अमुकायने अमुक ऋतौ महामाङ्गल्यप्रदमासोत्तमे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुक-ऋतौ अमुकतिथौ अमुकवासरे
अमुकनक्षत्रे एवं ग्रहगणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ अमुकगोत्रः अमुकोऽहं (सपत्नीकः) ममात्मनः
श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थमप्राप्तलक्ष्मीप्राप्त्यर्थं प्राप्तलक्ष्म्याश्चिरकालसंरक्षणार्थं सकलेप्सितकामनासिद्ध्यर्थं
कायिकवाचिकमानसिकसकलदुरितोपशमनार्थं तथा आयुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्ध्यर्थं विशेषतः भगवत्प्रीत्यर्थं
श्रीसत्यनारायणस्य पूजनकथाश्रवणाख्यं कर्म करिष्ये। (सङ्कल्पका जल छोड़ दे।)
पुनर्जलमादाय (पुनः जल-अक्षत लेकर गणपति आदिके पूजनका सङ्कल्प करे-) तदङ्गत्वेन कार्यस्य निर्विघ्नता-
सिद्ध्यर्थमादौ गौरीगणेशयोः पूजनम्, कलशाराधनं तथा च नवग्रहादिदेवानां नाममन्त्रैः पूजनमहं करिष्ये । (हाथमें
लिये हुए जल-अक्षतादिको छोड़ दे।)
(ख) निष्काम - ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः से अमुकोऽहं तक पहले सङ्कल्पके समान बोलकर आगे केवल इतना ही
बोले- भगवत्प्रीत्यर्थं श्रीसत्यनारायणस्य पूजनकथाश्रवणाख्यं च कर्म करिष्ये । (सङ्कल्पका जल छोड़ दे।)
पुनर्जलमादाय (पुनः जल-अक्षत लेकर गणपत्यादि-पूजनका सङ्कल्प करे-) तदङ्गत्वेन कार्यस्य निर्विघ्नता-
सिद्ध्यर्थमादौ गौरीगणेशयोः पूजनम्, कलशाराधनं तथा च नवग्रहादिदेवानां नाममन्त्रैः पूजनमहं करिष्ये ।
हाथमें अक्षत लेकर ध्यान और आवाहन करे-
भगवान् गणेशका ध्यान-
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः । प्रकृत्यै भद्रायै नियताः भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥
भगवान् गणेशका आवाहन -
एह्येहि हेरम्ब महेशपुत्र महेशपुत्र समस्तविघ्नौघविनाशदक्ष । माङ्गल्यपूजाप्रथमं प्रधानं गृहाण पूजां भगवन् नमस्ते ॥
सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः। गणपतिमावाहयामि । आवाहनार्थे अक्षतान् समर्पयामि। (हाथमें लिये अक्षतको गणेशजीपर चढ़ा दे । पुनः अक्षत लेकर गणेशजीकी दाहिनी ओर गौरीजीका आवाहन करे ।)
भगवती गौरीका आवाहन-
हेमाद्रितनयां देवीं वरदां शङ्करप्रियाम् । लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयाम्यहम् ॥
गौर्यै नमः । गौरीमावाहयामि। आवाहनार्थे अक्षतान् समर्पयामि। (हाथके अक्षतको गौरीजीपर चढ़ा दे ।)
प्रतिष्ठा - हाथमें अक्षत लेकर 'गणेशाम्बिके सुप्रतिष्ठिते वरदे भवेताम्। प्रतिष्ठापूर्वकम् आसनार्थे अक्षतान् समर्पयामि
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः ।' (बोलकर प्राणप्रतिष्ठा करते हुए आसनके लिये अक्षत समर्पित करे ।)
पाद्य-गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । पादयोः पाद्यं समर्पयामि। (जल चढ़ाये।)
अर्घ्य-गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । हस्तयोरर्घ्यं समर्पयामि। (जल चढ़ाये ।)
आचमन - गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । आचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमनीसे जल चढ़ाये ।)
स्नान - गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । स्त्रानीयं जलं समर्पयामि। (जलसे स्नान कराये ।)
पुनराचमन - गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि। (आचमनीसे पुनः जल चढ़ाये ।)
पञ्चामृतस्नान-यदि सम्भव हो तो गायके दूध, दही, घी, मधु तथा शर्करासे पृथक्-पृथक् स्नान कराये।
पञ्चामृत बनाकर एक साथ भी स्नान कराया जा सकता है, एक साथ स्नान करानेका मन्त्र इस प्रकार है-
पयो दधि घृतं चैव मधुशर्करयान्वितम्। पञ्चामृतं मयानीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम् ॥
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । पञ्चामृतस्नानं समर्पयामि । (पञ्चामृतसे स्नान कराये ।) शुद्धोदक-स्नान- गणेशाम्बिकाभ्यां
नमः । शुद्धोदकस्नानं समर्पयामि। (शुद्ध जलसे स्नान कराये और अङ्ग- प्रोक्षण कर गणेश तथा अम्बिकाको
यथास्थान विराजित करे।)
अम्बिकाजीको वस्त्र अथवा रक्तसूत्र अर्पित करे और आचमनके लिये जल दे।)
यज्ञोपवीत-गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । यज्ञोपवीतं समर्पयामि । आचमनीयं जलं समर्पयामि। (यज्ञोपवीत चढ़ाये तथा आचमनके लिये जल दे।)
चन्दन - गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । चन्दनानुलेपनं समर्पयामि। (चन्दन लगाये। गौरीजीको लाल रोली लगाये।) अक्षत-
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । अक्षतान् समर्पयामि। (अक्षत चढ़ाये।)
पुष्प-पुष्पमाला- गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । पुष्पं पुष्पमालां च समर्पयामि। (गौरी और गणेशको पुष्प तथा
पुष्पमालाओंसे अलङ्कृत करे।)
दूर्वा-गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । दूर्वांकुरान् समर्पयामि। (दूर्वाङ्कुर चढ़ाये।)
सिन्दूर-गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । सिन्दूरं सौभाग्यद्रव्यं च समर्पयामि। (सिन्दूर तथा सौभाग्यद्रव्य चढ़ाये ।) सुगन्धिद्रव्य
- गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । सुगन्धिद्रव्याणि समर्पयामि। (सुगन्धिद्रव्योंसे गणेश और अम्बिकाको सुवासित करे।)
धूप- गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । धूपमाघ्रापयामि। (धूप दिखाये ।) दीप- गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । दीपं दर्शयामि। (दीप दिखाये ।)
'हृषीकेशाय नमः ।' (कहकर हाथ धो ले।)
नैवेद्य-गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । नैवेद्यं निवेदयामि। (नैवेद्य निवेदित करे और उसमें दूर्वा तथा पुष्प छोड़कर भोग लगाये
फिर आचमनीय जल अर्पित करे ।)
ऋतुफल- गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । ऋतुफलं समर्पयामि। (फल चढ़ाये तथा आचमनके लिये जल दे ।) करोद्वर्तन -
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । करोद्वर्तनार्थे चन्दनं समर्पयामि । (करोद्वर्तनके लिये चन्दन चढ़ाये ।) ताम्बूल -
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । पुष्पाञ्जलिं समर्पयामि। (हाथमें लिये पुष्प अर्पित करे।) विशेषार्घ्य- एक ताम्रपात्रमें जल,
चन्दन, अक्षत, फल, फूल, दूर्वा और दक्षिणा रखकर अर्घ्यपात्र बना ले तथा उसे दोनों हाथमें लेकर निम्न मन्त्र पढ़े-
रक्ष रक्ष गणाध्यक्ष रक्ष त्रैलोक्यरक्षक । भक्तानामभयं कर्ता त्राता भव भवार्णवात् ॥
द्वैमातुर कृपासिन्धो षाण्मातुराग्रज प्रभो । वरदस्त्व वरं देहि वाञ्छितं वाञ्छितार्थद ॥
अनेन सफलार्घ्येण वरदोऽस्तु सदा मम ।
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । विशेषार्ध्यं समर्पयामि। (विशेषार्घ्य अर्पित करे ।)
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय ।
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते ॥
भक्तार्तिनाशनपराय गणेश्वराय सर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय ।
विद्याधराय विकटाय च वामनाय भक्तप्रसन्नवरदाय नमो नमस्ते ॥
त्वां विघ्नशत्रुदलनेति च सुन्दरेति भक्तप्रियेति सुखदेति फलप्रदेति ।
विद्याप्रदेत्यघहरेति च ये स्तुवन्ति तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेव ॥
त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया ।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत् त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ॥
गणेशाम्बिकाभ्यां नमः । प्रार्थनापूर्वकं नमस्कारान् समर्पयामि। (पुष्प अर्पित कर दे और साष्टाङ्ग प्रणाम करे।) समर्पण - हाथमें जल लेकर 'गणेशाम्बिकाभ्यां नमः ।
अनया पूजया गणेशाम्बिके प्रीयेताम्, न मम'-बोलकर समस्त पूजन-कर्म तथा जल भगवान्को समर्पित कर दे और पुनः नमस्कार करे ।।
एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः । पप्रच्छुर्मुनयः सर्वे सूतं पौराणिकं खलु ।। १ ।।
श्रीव्यासजीने कहा = एक समय नैमिषारण्य तीर्थमें शौनक आदि सभी ऋषियों तथा मुनियोंने पुराणशास्त्रके वेत्ताश्रीसूतजी महराजसे पुछा ।। १ ।।
व्रतेन तपसा किं वा प्राप्यते वाच्छितं फलम् । तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामः कथयस्व महामुने ।। २ ।।
ऋषियोंने कहा = महामुने ! किस व्रत अथवा तपस्यासे मनोवाच्छित फल प्राप्त होता है , उसे हम सब सुनना चाहते है
आप कहें ।। २ ।।
नारदेनैव सम्पृष्टो भगवान् कमलापतिः । सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं समाहिताः ।। ३ ।।
एकदा नारदो योगी परानुग्रहकाङ्क्षया । पर्यटन् विविधान् लोकान् मर्त्यलोकमुपागतः ।। ४ ।।
ततो दृष्ट्वा जनान् सर्वान् नानक्लेशसमन्वितान् । नानायोनिसमुत्पन्नान् क्लिश्यमानान् स्वकर्मभिः ।। ५ ।।
केनोपायेन चैतषां दुःखनाशो भवेद् ध्रुवम् । इति संचिन्त्य मनसा विष्णुलोकं गतस्तदा ।। ६ ।।
श्रीसूतजी बोले = इसी प्रकार देवर्षि नारदजीके द्वारा भी पूछे जानेपर भगवान् कमलापतिने उनसे जैसा कहा था, उसे कह रहा हूँ, आपलोग सावधान होकर सुनें। एक समय योगी नारदजी लोगोंके कल्याणकी कामनासे विविध लोकोंमें भ्रमण करते हुए मृत्युलोकमें आये और यहाँ उन्होंने अपने कर्मफलके अनुसार नाना योनियोंमें उत्पन्न सभी प्राणियोंको अनेक प्रकारके क्लेश-दुःख भोगते हुए देखा तथा 'किस उपायसे इनके दुःखोंका सुनिश्चित रूपसे नाश हो सकता है', ऐसा मनमें विचार करके वे विष्णुलोक गये ॥ ३-६ ॥
तत्र नारायणं देवं शुक्लवर्णं चतुर्भुजम् । शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाविभूषितम्
दृष्ट्वा तं देवदेवेशं स्तोतुं समुपचक्रमे ।
वहाँ चार भुजाओंवाले और शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म तथा वनमालासे विभूषित शुक्लवर्ण भगवान् नारायणका दर्शन कर उन देवाधिदेवकी वे स्तुति करने लगे ॥
नमो वाङ्मनसातीतरूपायानन्तशक्तये ॥ ८ ॥
आदिमध्यान्तहीनाय निर्गुणाय गुणात्मने । सर्वेषामादिभूताय भक्तानामार्तिनाशिने ॥ ९ ॥
श्रुत्वा स्तोत्रं ततो विष्णुर्नारदं प्रत्यभाषत ।
नारदजी बोले – हे वाणी और मनसे परे स्वरूपवाले, अनन्तशक्तिसम्पन्न, आदि-मध्य और अन्तसे रहित, निर्गुण और सकल कल्याणमय गुणगणोंसे सम्पन्न, स्थावर-जङ्गमात्मक निखिल सृष्टिप्रपञ्चके कारणभूत तथा भक्तोंकी पीडा नष्ट करने- वाले परमात्मन्! आपको नमस्कार है। स्तुति सुननेके अनन्तर भगवान् श्रीविष्णुने नारदजीसे कहा-॥ ॥
किमर्थमागतोऽसि त्वं किं ते मनसि वर्तते । कथयस्व महाभाग तत्सर्वं कथयामि ते ॥१०॥
श्रीभगवान्ने कहा- महाभाग ! आप किस प्रयोजनसे यहाँ आये हैं, आपके मनमें क्या है, कहिये, वह सब कुछ मैं आपको बताऊँगा ॥ १० ॥
मर्त्यलोके जनाः सर्वे नानाक्लेशसमन्विताः । नानायोनिसमुत्पन्नाः पच्यन्ते पापकर्मभिः ॥ ११ ॥
तत्कथं शमयेन्नाथ लघूपायेन तद्वद । श्रोतुमिच्छामि तत्सर्वं कृपास्ति यदि ते मयि ॥ १२ ॥
नारदजी बोले – [ भगवन्!] मृत्युलोकमें अपने पापकर्मोंके द्वारा विभिन्न योनियोंमें उत्पन्न सभी लोग बहुत प्रकारके क्लेशोंसे दुःखी हो रहे हैं । हे नाथ! किस लघु उपायसे उनके कष्टोंका निवारण हो सकेगा, यदि आपकी मेरे ऊपर कृपा हो तो वह सब मैं सुनना चाहता हूँ । उसे बतायें ॥ ११-१२ ॥
साधु पृष्टं त्वया वत्स लोकानुग्रहकाङ्क्षया । यत्कृत्वा मुच्यते मोहात् तच्छृणुष्व वदामि ते ॥ १३ ॥
व्रतमस्ति महत्पुण्यं स्वर्गे मर्त्ये च दुर्लभम् । तव स्नेहान्मया वत्स प्रकाशः क्रियतेऽधुना ॥ १४ ॥
सत्यनारायणस्यैव व्रतं सम्यग्विधानतः । कृत्वा सद्यः सुखं भुक्त्वा परत्र मोक्षमाप्नुयात् ॥ १५ ॥
तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं नारदो मुनिरब्रवीत् ।
श्रीभगवान्ने कहा- हे वत्स ! संसारके ऊपर अनुग्रह करनेकी इच्छासे आपने बहुत अच्छी (उत्तम) बात पूछी है। जिस [ व्रत]-के करनेसे प्राणी मोहसे मुक्त हो जाता है, उसे आपको बताता हूँ, सुनें। हे वत्स ! स्वर्ग और मृत्युलोकमें दुर्लभ [ भगवान् सत्यनारायणका] एक महान् पुण्यप्रद व्रत है। आपके स्नेहके कारण इस समय मैं उसे कह रहा हूँ। 'अच्छी प्रकार विधि-विधानसे भगवान् सत्यनारायणका व्रत करके मनुष्य शीघ्र ही सुख प्राप्तकर परलोकमें मोक्ष प्राप्त कर सकता है।' भगवान्की ऐसी वाणी सुनकर नारद मुनिने कहा-॥
किं फलं किं विधानं च कृतं केनैव तद् व्रतम् ॥ १६॥
तत्सर्वं विस्तराद् ब्रूहि कदा कार्यं व्रतं प्रभो ।
नारदजी बोले – प्रभो! इस व्रतको करनेका फल क्या है, इसका विधान क्या है, इस व्रतको किसने किया और कब इसे करना चाहिये ? यह सब विस्तारपूर्वक बतलाइये ॥ १६,॥
दुःखशोकादिशमनं धनधान्यप्रवर्धनम् ॥ १७॥
सौभाग्यसंततिकरं सर्वत्र विजयप्रदम् । यस्मिन् कस्मिन् दिने मर्त्यो भक्तिश्रद्धासमन्वितः ॥ १८ ॥
सत्यनारायणं देवं यजेच्चैव निशामुखे । ब्राह्मणैर्बान्धवैश्चैव सहितो धर्मतत्परः ॥ १९॥ ।
नैवेद्यं भक्तितो दद्यात् सपादं भक्ष्यमुत्तमम् । रम्भाफलं घृतं क्षीरं गोधूमस्य च चूर्णकम् ॥ २० ॥
अभावे शालिचूर्णं वा शर्करा वा गुडस्तथा । सपादं सर्वभक्ष्याणि चैकीकृत्य निवेदयेत् ॥ २१॥
श्रीभगवान्ने कहा – यह सत्यनारायणव्रत दुःख-शोक आदिका शमन करनेवाला, धन-धान्यकी वृद्धि करनेवाला, सौभाग्य और संतान देनेवाला तथा सर्वत्र विजय प्रदान करनेवाला है । जिस किसी भी दिन भक्ति और श्रद्धासे समन्वित होकर मनुष्य ब्राह्मणों और बन्धु-बान्धवोंके साथ धर्ममें तत्पर होकर सायंकाल भगवान् सत्यनारायणकी पूजा करे। नैवेद्यके रूपमें उत्तम कोटिके भोजनीय पदार्थको सवाया मात्रामें भक्तिपूर्वक अर्पित करना चाहिये। केलेका फल, घी, दूध, गेहूँका चूर्ण अथवा गेहूँके चूर्णके अभावमें साठी चावलका चूर्ण, शक्कर या गुड़ - यह सब भक्ष्य सामग्री सवाया मात्रामें एकत्र कर निवेदित करनी चाहिये ॥ १७ - २१ ॥
विप्राय दक्षिणां दद्यात् कथां श्रुत्वा जनैः सह । ततश्च बन्धुभिः सार्धं विप्रांश्च प्रतिभोजयेत् ॥ २२ ॥
प्रसादं भक्षयेद् भक्त्या नृत्यगीतादिकं चरेत् । ततश्च स्वगृहं गच्छेत् सत्यनारायणं स्मरन् ॥ २३ ॥
एवं कृते मनुष्याणां वाञ्छासिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् । विशेषतः कलियुगे लघूपायोऽस्ति भूतले ॥ २४ ॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
अथान्यत् सम्प्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा द्विजाः । कश्चित् काशीपुरे रम्ये ह्यासीद् विप्रोऽतिनिर्धनः ॥ १ ॥
क्षुत्तृड्भ्यां व्याकुलो भूत्वा नित्यं बभ्राम भूतले । दुःखितं ब्राह्मणं दृष्ट्वा भगवान् ब्राह्मणप्रियः ॥ २ ॥
वृद्धब्राह्मणरूपस्तं पप्रच्छ द्विजमादरात्। किमर्थं भ्रमसे विप्र महीं नित्यं सुदुःखितः ॥ ३ ॥
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां द्विजसत्तम ।
श्रीसूतजी बोले- हे द्विजो ! अब मैं पुनः पूर्वकालमें जिसने इस सत्यनारायणव्रतको किया था, उसे भलीभाँति विस्तारपूर्वक कहूँगा । रमणीय काशी नामक नगरमें कोई अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। भूख और प्याससे व्याकुल होकर वह प्रतिदिन पृथ्वीपर भटकता रहता था। ब्राह्मणप्रिय भगवान्ने उस दुःखी ब्राह्मणको देखकर वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करके उस द्विजसे आदरपूर्वक पूछा- हे विप्र ! प्रतिदिन अत्यन्त दुःखी होकर तुम किसलिये पृथ्वीपर भ्रमण करते रहते हो। हे द्विजश्रेष्ठ ! यह सब बतलाओ, मैं सुनना चाहता हूँ॥ १-३, ॥
ब्राह्मणोऽतिदरिद्रोऽहं भिक्षार्थं वै भ्रमे महीम्॥४॥
उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो ।
ब्राह्मण बोला- प्रभो ! मैं अत्यन्त दरिद्र ब्राह्मण हूँ और भिक्षाके लिये ही पृथ्वीपर घूमा करता हूँ । यदि [मेरी इस दरिद्रताको दूर करनेका] आप कुछ उपाय जानते हों तो कृपापूर्वक बतलाइये ॥ ४९/, ॥
सत्यनारायणो विष्णुर्वाञ्छितार्थफलप्रदः ॥ ५ ॥
तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम् । यत्कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ॥ ६ ॥
विधानं च व्रतस्यापि विप्रायाभाष्य यत्नतः । सत्यनारायणो वृद्धस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ ७ ॥
तद् व्रतं संकरिष्यामि यदुक्तं ब्राह्मणेन वै । इति संचिन्त्य विप्रोऽसौ रात्रौ निद्रां न लब्धवान् ॥ ८ ॥
वृद्ध ब्राह्मणने कहा - [हे ब्राह्मणदेव !] सत्यनारायण भगवान् विष्णु अभीष्ट फलको देनेवाले हैं। हे विप्र ! तुम उनका उत्तम व्रत एवं पूजन करो, जिसे करनेसे मनुष्य सभी दुःखोंसे मुक्त हो जाता है और व्रतके विधानको भी ब्राह्मणसे यत्त्रपूर्वक कहकर वृद्धब्राह्मणरूपधारी भगवान् सत्यनारायण वहींपर अन्तर्धान हो गये। 'वृद्ध ब्राह्मणने जैसा कहा है, उस व्रतको अच्छी प्रकारसे वैसे ही करूँगा'- यह सोचते हुए उस ब्राह्मणको रातमें नींद नहीं आयी ॥ ५-८ ॥
ततः प्रातः समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम्। करिष्य इति संकल्प्य भिक्षार्थमगमद् द्विजः ॥ ९ ॥
तस्मिन्नेव दिने विप्रः प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान् । तेनैव बन्धुभिः सार्धं सत्यस्य व्रतमाचरत् ॥ १० ॥
सर्वदुःखविनिर्मुक्तः सर्वसम्पत्समन्वितः । बभूव स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्यास्य प्रभावतः ॥ ११ ॥
ततः प्रभृतिकालं च मासि मासि व्रतं कृतम् ।
एवं नारायणस्येदं व्रतं कृत्वा द्विजोत्तमः । सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं मोक्षमाप्तवान् ॥ १२ ॥
तदनन्तर प्रात:काल उठकर 'सत्यनारायणका व्रत करूँगा' ऐसा संकल्प करके वह ब्राह्मण भिक्षाके लिये चल पड़ा। उस दिन ही ब्राह्मणको [भिक्षामें] बहुत-सा धन प्राप्त हुआ। उसी धनसे उसने बन्धु-बान्धवोंके साथ भगवान् सत्यनारायणका व्रत किया। इस व्रतके प्रभावसे वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी दुःखोंसे मुक्त होकर समस्त सम्पत्तियोंसे सम्पन्न हो गया। उस दिनसे लेकर प्रत्येक महीने उसने यह व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायणके इस व्रतको करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापोंसे मुक्त हो गया और उसने दुर्लभ मोक्षपदको प्राप्त किया ॥ ९-१२ ॥
व्रतमस्य यदा विप्र पृथिव्यां संकरिष्यति । तदैव सर्वदुःखं तु मनुजस्य विनश्यति ॥ १३ ॥
एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने । मया तत्कथितं विप्राः किमन्यत् कथयामि वः ॥ १४ ॥
हे विप्र ! पृथ्वीपर जब भी कोई मनुष्य श्रीसत्यनारायणका व्रत करेगा, उसी समय उसके समस्त दुःख नष्ट हो जायँगे। हे ब्राह्मणो! इस प्रकार भगवान् नारायणने महात्मा नारदजीसे जो कुछ कहा, मैंने वह सब आप लोगोंसे कह दिया, आगे अब और क्या कहूँ ? ॥ १३-१४॥
तस्माद् विप्राच्छुतं केन पृथिव्यां चरितं मुने । तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामः श्रद्धाऽस्माकं प्रजायते ॥ १५ ॥
ऋषियोंने कहा- हे मुने! इस पृथ्वीपर उस ब्राह्मणसे सुने हुए इस व्रतको किसने किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं, [उस व्रतपर] हमारी श्रद्धा हो रही है ॥ १५ ॥
शृणुध्वं मुनयः सर्वे व्रतं येन कृतं भुवि । एकदा स द्विजवरो यथाविभवविस्तरैः ॥ १६ ॥
बन्धुभिः स्वजनैः सार्धं व्रतं कर्तुं समुद्यतः । एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेता समागमत् ॥ १७ ॥
बहिः काष्ठं च संस्थाप्य विप्रस्य गृहमाययौ । तृष्णया पीडितात्मा च दृष्ट्वा विप्रं कृतं व्रतम् ॥ १८ ॥
प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं क्रियते त्वया । कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद् वद मे प्रभो ॥ १९ ॥
श्रीसूतजी बोले -मुनियो ! पृथ्वीपर जिसने यह व्रत किया, उसे आप लोग सुनें। एक बार वह द्विजश्रेष्ठ अपनी धन-सम्पत्तिके अनुसार बन्धु-बान्धवों तथा पारिवारिकजनोंके साथ व्रत करनेके लिये उद्यत हुआ। इसी बीच एक लकड़हारा वहाँ आया और लकड़ी बाहर रखकर उस ब्राह्मणके घर गया। प्याससे व्याकुल वह उस ब्राह्मणको व्रत करता हुआ देख प्रणाम करके उससे बोला-प्रभो ! आप यह क्या कर रहे हैं, इसके करनेसे किस फलकी प्राप्ति होती है, विस्तारपूर्वक मुझसे कहिये ॥ १६-१९ ॥
सत्यनारायणस्येदं व्रतं सर्वेप्सितप्रदम् । तस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत् ॥ २० ॥
स्मादेतद् व्रतं ज्ञात्वा काष्ठक्रेताऽतिहर्षितः । पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा स नगरं ययौ ॥ २१ ॥
सत्यनारायणं देवं मनसा इत्यचिन्तयत् । काष्ठं विक्रयतो ग्रामे प्राप्यते चाद्य यद् धनम् ॥ २२ ॥
तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये व्रतमुत्तमम् । इति संचिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा तु मस्तके ॥ २३ ॥
जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थितिः । तद्दिने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ ॥ २४ ॥
विप्रने कहा- यह सत्यनारायणका व्रत है, जो सभी मनोरथोंको प्रदान करनेवाला है। उसीके प्रभावसे मुझे यह सब महान् धन-धान्य आदि प्राप्त हुआ है। जल पीकर तथा प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। सत्यनारायणदेवके लिये मनसे ऐसा सोचने लगा कि 'आज लकड़ी बेचनेसे जो धन प्राप्त होगा, उसी धनसे भगवान् सत्यनारायणका श्रेष्ठ व्रत करूँगा।' इस प्रकार मनसे चिन्तन करता हुआ लकड़ीको मस्तकपर रखकर उस सुन्दर नगरमें गया, जहाँ धन-सम्पन्न लोग रहते थे। उस दिन उसने लकड़ीका दुगुना मूल्य प्राप्त किया ॥ २०-२४ ॥
ततः प्रसन्नहृदयः सुपक्वं कदलीफलम् । शर्कराघृतदुग्धं च गोधूमस्य च चूर्णकम् ॥ २५ ॥
कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ । ततो बन्धून् समाहूय चकार विधिना व्रतम् ॥ २६ ॥
तद् व्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत् । इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥ २७ ॥ ।।
इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
तदनन्तर प्रसन्न-हृदय होकर वह पके हुए केलेका फल, शर्करा, घी, दूध और गेहूँका चूर्ण सवाया मात्रामें लेकर अपने घर गया। तत्पश्चात् उसने [ अपने] बान्धवोंको बुलाकर विधि-विधानसे भगवान् श्रीसत्यनारायणका व्रत किया। उस व्रतके प्रभावसे वह धन-पुत्रसे सम्पन्न हो गया और इस लोकमें अनेक सुखोंका उपभोगकर अन्तमें सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) चला गया ॥ २५ - २७॥
।। इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके अन्तर्गत रेवाखण्डमें श्रीसत्यनारायणव्रतकथाका यह दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥
पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः । पुरा चोल्कामुखो नाम नृपश्चासीन्महामतिः ॥ १ ॥
जितेन्द्रियः सत्यवादी ययौ देवालयं प्रति । दिने दिने धनं दत्त्वा द्विजान् संतोषयत् सुधीः ॥ २ ॥
भार्या तस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती । भद्रशीलानदीतीरे सत्यस्य व्रतमाचरत् ॥ ३॥
एतस्मिन्नन्तरे तत्र साधुरेकः समागतः । वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकैः परिपूरितः ॥ ४ ॥
नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति । दृष्ट्वा स व्रतिनं भूपं पप्रच्छ विनयान्वितः ॥ ५ ॥
श्रीसूतजी बोले- श्रेष्ठ मुनियो ! अब मैं पुनः आगेकी कथा कहूँगा, आप लोग सुनें। प्राचीन कालमें उल्कामुख नामका एक राजा था। वह जितेन्द्रिय, सत्यवादी तथा अत्यन्त बुद्धिमान् था। वह विद्वान् राजा प्रतिदिन देवालय जाता और ब्राह्मणोंको धन देकर संतुष्ट करता था। कमलके समान मुखवाली उसकी धर्मपत्नी शील, विनय एवं सौन्दर्य आदि गुणोंसे सम्पन्न तथा पतिपरायणा थी। राजा [एक दिन अपनी धर्मपत्नीके साथ] भद्रशीला नदीकेतटपर श्रीसत्यनारायणका व्रत कर रहा था । उसी समय व्यापारके लिये अनेक प्रकारकी पुष्कल धनराशिसे सम्पन्न एक साधु [ वणिक्] वहाँ आया। भद्रशीला नदीके तटपर नावको स्थापित कर वह राजाके समीप गया और राजाको उस व्रतमें दीक्षित देखकर विनयपूर्वक पूछने लगा ॥१-५॥
किमिदं कुरुषे राजन् भक्तियुक्तेन चेतसा । प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥ ६ ॥
साधुने कहा- राजन्! आप भक्तियुक्त चित्तसे यह क्या कर रहे हैं? कृपया वह सब बताइये, इस समय मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ६ ॥
पूजनं क्रियते साधो विष्णोरतुलतेजसः । व्रतं च स्वजनैः सार्धं पुत्राद्यावाप्तिकाम्यया ॥ ७ ॥
राजा बोले- हे साधो ! पुत्र आदिकी प्राप्तिकी कामनासे अपने बन्धु-बान्धवोंके साथ मैं अतुल तेजसम्पन्न भगवान् विष्णुका व्रत एवं पूजन कर रहा हूँ ॥ ७ ॥
भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधुः प्रोवाच सादरम् । सर्वं कथय मे राजन् करिष्येऽहं तवोदितम् ॥ ८ ॥
ममापि संततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते ध्रुवम्। ततो निवृत्त्य वाणिज्यात् सानन्दो गृहमागतः ॥ ९ ॥
भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं संततिदायकम् । तदा व्रतं करिष्यामि यदा मे संततिर्भवेत् ॥ १० ॥
इति लीलावतीं प्राह पत्नीं साधुः स सत्तमः ।
राजाकी बात सुनकर साधुने आदरपूर्वक कहा- राजन् ! इस विषयमें आप मुझे सब कुछ विस्तारसे बतलाइये, आपके कथनानुसार मैं [ व्रत एवं पूजन] करूँगा। मुझे भी संतति नहीं है। 'इससे अवश्य ही संतति प्राप्त होगी' - ऐसा विचार कर वह व्यापारसे निवृत्त हो आनन्दपूर्वक अपने घर आया। उसने अपनी भार्यासे संतति प्रदान करनेवाले इस सत्यव्रतको विस्तारपूर्वक बताया तथा - 'जब मुझे संततिकी प्राप्ति होगी तब मैं इस व्रतको करूँगा'- इस प्रकार उस साधुने अपनी भार्या लीलावतीसे कहा ॥ ८-१०२ ॥
एकस्मिन् दिवसे तस्य भार्या लीलावती सती ॥ ११ ॥
भर्तृयुक्तानन्दचित्ताऽभवद् धर्मपरायणा। गर्भिणी साऽभवत् तस्य भार्या सत्यप्रसादतः ॥ १२ ॥
दशमे मासि वै तस्याः कन्यारत्नमजायत। दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी ॥ १३ ॥
नाम्ना कलावती चेति तन्नामकरणं कृतम् । ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वचः ॥ १४ ॥
न करोषि किमर्थं वै पुरा संकल्पितं व्रतम् ।
एक दिन उसकी लीलावती नामकी सती-साध्वी भार्या पतिके साथ आनन्दचित्तसे ऋतुकालीन धर्माचरणमें प्रवृत्त हुई और भगवान् श्रीसत्यनारायणकी कृपासे उसकी वह भार्या गर्भिणी हुई। दसवें महीनेमें उससे कन्यारत्नकी उत्पत्ति हुई और वह शुक्लपक्षके चन्द्रमाकी भाँति दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। उस कन्याका 'कलावती' यह नाम रखा गया। इसके बाद एक दिन लीलावतीने अपने स्वामीसे मधुर वाणीमें कहा-आप पूर्वमें संकल्पित श्रीसत्यनारायणके व्रतको क्यों नहीं कर रहे हैं ? ॥ ११-१४/२ ॥
विवाहसमये त्वस्याः करिष्यामि व्रतं प्रिये ॥ १५ ॥
इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति । ततः कलावती कन्या ववृधे पितृवेश्मनि ॥ १६ ॥
दृष्ट्वा कन्यां ततः साधुर्नगरे सखिभिः सह । मन्त्रयित्वा द्रुतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित् ॥ १७ ॥
विवाहार्थं च कन्याया वरं श्रेष्ठं विचारय । तेनाज्ञप्तश्च दूतोऽसौ काञ्चनं नगरं ययौ ॥ १८ ॥
तस्मादेकं वणिक्पुत्रं समादायागतो हि सः । दृष्ट्वा तु सुन्दरं बालं वणिक्पुत्रं गुणान्वितम् ॥ १९ ॥
ज्ञातिभिर्बन्धुभिः सार्धं परितुष्टेन चेतसा । दत्तवान् साधुपुत्राय कन्यां विधिविधानतः ॥ २० ॥
साधु बोला- 'प्रिये ! इसके विवाहके समय व्रत करूँगा।' इस प्रकार अपनी पत्नीको भलीभाँति आश्वस्त कर [ वह व्यापार करनेके लिये] नगरकी ओर चला गया। इधर कन्या कलावती पिताके घरमें बढ़ने लगी। तदनन्तर धर्मज्ञ साधुने नगरमें सखियोंके साथ [क्रीडा करती हुई अपनी] कन्याको विवाहयोग्य देखकर आपसमें मन्त्रणा करके 'कन्याके विवाहके लिये श्रेष्ठ वरका अन्वेषण करो'-ऐसा दूतसे कहकर शीघ्र ही उसे भेज दिया। उसकी आज्ञा प्राप्त करके दूत काञ्चन नामक नगरमें गया और वहाँसे एक वणिक्का पुत्र लेकर आया । [ उस] साधुने उस वणिक्के पुत्रको सुन्दर और गुणोंसे सम्पन्न देखकर अपनी जातिके लोगों तथा बन्धु-बान्धवोंके साथ संतुष्टचित्त हो विधि-विधानसे वणिक्पुत्रके हाथमें कन्याका दान कर दिया ॥ १५ - २० ॥
ततोऽभाग्यवशात् तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम् । विवाहसमये तस्यास्तेन रुष्टोऽभवत् प्रभुः ॥ २१ ॥
ततः कालेन नियतो निजकर्मविशारदः । वाणिज्यार्थं ततः शीघ्रं जामातृसहितो वणिक् ॥ २२ ॥
रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिन्धुसमीपतः । वाणिज्यमकरोत् साधुर्जामात्रा श्रीमता सह ॥ २३ ॥
तौ गतौ नगरे रम्ये चन्द्रकेतोर्नृपस्य च । एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायणः प्रभुः ॥ २४ ॥
भ्रष्टप्रतिज्ञमालोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान् । दारुणं कठिनं चास्य महद् दुःखं भविष्यति ॥ २५ ॥
उस समय वह (साधु वणिक्) दुर्भाग्यवश भगवान्का वह उत्तम व्रत भूल गया। [ पूर्व-संकल्पके अनुसार ] विवाहके समयमें व्रत न करनेके कारण भगवान् उसपर रुष्ट हो गये। कुछ समयके पश्चात् अपने व्यापारकर्ममें कुशल वह साधु वणिक् कालकी प्रेरणासे अपने दामादके साथ व्यापार करनेके लिये समुद्रके समीप स्थित रत्नसारपुर नामक सुन्दर नगरमें गया और अपने श्रीसम्पन्न दामादके साथ वहाँ व्यापार करने लगा। तदनन्तर वे दोनों राजा चन्द्रकेतुके रमणीय उस नगरमें गये। उसी समय भगवान् श्रीसत्यनारायणने उसे भ्रष्टप्रतिज्ञ देखकर 'इसे दारुण, कठिन और महान् दुःख प्राप्त होगा'- यह शाप दे दिया । २१-२५॥
एकस्मिन् दिवसे राज्ञो धनमादाय तस्करः । तत्रैव चागतश्चौरो वणिजौ यत्र संस्थितौ ॥ २६ ॥
तत्पश्चाद् धावकान् दूतान् दृष्ट्वा भीतेन चेतसा । धनं संस्थाप्य तत्रैव स तु शीघ्रमलक्षितः ॥ २७ ॥
ततो दूताः समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक् । दृष्ट्वा नृपधनं तत्र बद्ध्वाऽऽनीतौ वणिक्सुतौ ॥ २८ ॥
हर्षेण धावमानाश्च प्रोचुर्नृपसमीपतः। तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याज्ञापय प्रभो ॥ २९ ॥
राज्ञाऽऽज्ञप्तास्ततः शीघ्रं दृढं बध्वा तु तावुभौ । स्थापितौ द्वौ महादुर्गे कारागारेऽविचारतः ॥ ३० ॥
मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वचः । अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चन्द्रकेतुना ॥ ३१ ॥
एक दिन एक चोर राजा (चन्द्रकेतु)-के धनको चुराकर वहीं आया, जहाँ दोनों वणिक् स्थित थे। वह अपने पीछे दौड़ते हुए दूतोंको देखकर भयभीतचित्तसे धन वहीं छोड़कर शीघ्र ही छिप गया। इसके बाद राजाके दूत वहाँ आ गये जहाँ वह साधु वणिक् था । वहाँ राजाके धनको देखकर वे दूत उन दोनों वणिक्पुत्रोंको बाँधकर ले आये और हर्षपूर्वक दौड़ते हुए राजासे बोले-'प्रभो! हम दो चोर पकड़ लाये हैं, इन्हें देखकर आप आज्ञा दें'। राजाकी आज्ञासे दोनों शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक बाँधकर बिना विचार किये महान् कारागारमें डाल दिये गये। भगवान् सत्यदेवकी मायासे किसीने उन दोनोंकी बात नहीं सुनी और राजा चन्द्रकेतुने उन दोनोंका धन भी ले लिया ॥ २६-३१ ॥
तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवातिदुःखिता। चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम् ॥ ३२ ॥
आधिव्याधिसमायुक्ता क्षुत्पिपासातिदुःखिता । अन्नचिन्तापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे गृहे ॥ ३३ ॥
कलावती तु कन्यापि बभ्राम प्रतिवासरम् ।
एकस्मिन् दिवसे याता क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम् । गत्वाऽपश्यद् व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च ॥ ३४ ॥
उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं प्रार्थितवत्यपि । प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति ॥ ३५ ॥
उन [भगवान्]-के शापसे वणिक्के घरमें उसकी भार्या भी अत्यन्त दुःखित हो गयी और उनके घरमें सारा- का-सारा जो धन था, वह चोरने चुरा लिया। वह (लीलावती) शारीरिक तथा मानसिक पीडाओंसे युक्त, भूख और प्याससे दुःखी हो अन्नकी चिन्तासे दर-दर भटकने लगी। कलावती कन्या भी [भोजनके लिये इधर-उधर] प्रतिदिन घूमने लगी। एक दिन क्षुधासे पीडित हो वह (कलावती) एक ब्राह्मणके घर गयी। वहाँ जाकर उसने श्रीसत्यनारायणके व्रत-पूजनको देखा। वहाँ बैठकर उसने कथा सुनी और वरदान माँगा। तदनन्तर प्रसाद ग्रहण करके वह कुछ रात होनेपर घर गयी ॥ ३२-३५ ॥
माता कलावतीं कन्यां कथयामास प्रेमतः । पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्र किं ते मनसि वर्तते ॥ ३६ ॥
कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम् । द्विजालये व्रतं मातर्दृष्टं वाञ्छितसिद्धिदम् ॥ ३७ ॥
तच्छ्रुत्वा कन्यकावाक्यं व्रतं कर्तुं समुद्यता । सा मुदा तु वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च ॥ ३८ ॥
व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभिः स्वजनैः सह । भर्तृजामातरौ क्षिप्रमागच्छेतां स्वमाश्रमम् ॥ ३९॥
अपराधं च मे भर्तुर्जामातुः क्षन्तुमर्हसि । व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायणः पुनः ॥ ४० ॥
दर्शयामास स्वजं हि चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् । वन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम ॥ ४१ ॥
देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत् त्वयाऽधुना । नो चेत् त्वां नाशयिष्यामि सराज्यधनपुत्रकम् ॥ ४२ ॥
माता [लीलावती]-ने कलावती कन्यासे प्रेमपूर्वक पूछा -पुत्रि ! रातमें तू कहाँ रुक गयी थी ? तुम्हारे मनमें क्या है ? कलावती कन्याने तुरंत मातासे कहा- माँ! मैंने एक ब्राह्मणके घरमें मनोरथ प्रदान करनेवाला व्रत देखा है। कन्याकी उस बातको सुनकर वह वणिक्की भार्या व्रत करनेको उद्यत हुई और प्रसन्नमनसे उस साध्वीने बन्धु-बान्धवोंके साथ भगवान् श्रीसत्यनारायणका व्रत किया तथा इस प्रकार प्रार्थना की- 'भगवन्! आप हमारे पति एवं जामाताके अपराधको क्षमा करें। वे दोनों अपने घर शीघ्र आ जायँ।' इस व्रतसे भगवान् सत्यनारायण पुनः संतुष्ट हो गये तथा उन्होंने नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतुको स्वप्न दिखाया और [स्वप्नमें] कहा-'नृपश्रेष्ठ ! प्रातः काल दोनों वणिकोंको छोड़ दो और वह सारा धन भी दे दो, जो तुमने उनसे इस समय ले लिया है; अन्यथा राज्य, धन एवं पुत्रसहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूँगा' ॥ ३६-४२ ॥
एवमाभाष्य राजानं ध्यानगम्योऽभवत् प्रभुः । ततः प्रभातसमये राजा च स्वजनैः सह ॥ ४३ ॥
उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं प्रति । बद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचय द्वौ वणिक्सुतौ ॥ ४४ ॥
इति राज्ञो वचः श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ । समानीय नृपस्याग्रे प्राहुस्ते विनयान्विताः ॥ ४५ ॥
आनीतौ द्वौ वणिक्पुत्रौ मुक्तौ निगडबन्धनात्। ततो महाजनौ नत्वा चन्द्रकेतुं नृपोत्तमम् ॥ ४६ ॥
स्मरन्तौ पूर्ववृत्तान्तं नोचतुर्भयविह्वलौ । राजा वणिक्सुतौ वीक्ष्य वचः प्रोवाच सादरम् ॥ ४७ ॥
राजासे स्वप्रमें ऐसा कहकर भगवान् सत्यनारायण अन्तर्धान हो गये। इसके अनन्तर प्रातः काल राजाने अपने सभासदोंके साथ सभाके मध्य बैठकर अपना स्वप्न लोगोंको बताया और कहा-'दोनों बंदी वणिक्पुत्रोंको शीघ्र ही मुक्त कर दो'। राजाकी ऐसी बात सुनकर वे राजपुरुष दोनों महाजनोंको बन्धनमुक्त करके राजाके सामने लाकर विनयपूर्वक बोले-महाराज! बेड़ी-बन्धनसे मुक्त करके दोनों वणिक्पुत्र लाये गये हैं। इसके बाद दोनों महाजन (वणिक्पुत्र) नृपश्रेष्ठ चन्द्रकेतुको प्रणाम करके अपने पूर्व-वृत्तान्तका स्मरण करते हुए भयविह्वल हो गये और कुछ बोल न सके। राजाने वणिक्पुत्रोंको देखकर आदरपूर्वक कहा- ॥ ४३–४७ ॥
दैवात् प्राप्तं महदुःखमिदानीं नास्ति वै भयम् । तदा निगडसंत्यागं क्षौरकर्माद्यकारयत् ॥ ४८ ॥
वस्त्रालङ्कारकं दत्त्वा परितोष्य नृपश्च तौ । पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचसाऽतोषयद् भृशम् ॥ ४९ ॥
पुरानीतं तु यद् द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान्। प्रोवाच च ततो राजा गच्छ साधो निजाश्रमम् ॥ ५० ॥
राजानं प्रणिपत्याह गन्तव्यं त्वत्प्रसादतः । इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतुः स्वगृहं प्रति ॥ ५१ ॥
।। इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥
यात्रां तु कृतवान् साधुर्मङ्गलायनपूर्विकाम् । ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा तदा तु नगरं ययौ ॥ १ ॥
कियद् दूरे गते साधौ सत्यनारायणः प्रभुः । जिज्ञासां कृतवान् साधो किमस्ति तव नौस्थितम् ॥ २ ॥
ततो महाजनौ मत्तौ हेलया च प्रहस्य वै । कथं पृच्छसि भो दण्डिन् मुद्रां नेतुं किमिच्छसि ॥ ३ ॥
लतापत्रादिकं चैव वर्तते तरणौ मम । निष्ठुरं च वचः श्रुत्वा सत्यं भवतु ते वचः ॥ ४॥
एवमुक्त्वा गतः शीघ्रं दण्डी तस्य समीपतः । कियद् दूरे ततो गत्वा स्थितः सिन्धुसमीपतः ॥ ५ ॥
श्रीसूतजी बोले- साधु [ वणिक्] मङ्गलाचरण कर और ब्राह्मणोंको धन देकर अपने नगरके लिये चल पड़ा। साधुके कुछ दूर जानेपर भगवान् सत्यनारायणकी [उसकी सत्यताकी परीक्षाके विषयमें] जिज्ञासा हुई— 'साधो ! तुम्हारी नावमें क्या भरा है' ? तब धनके मदमें चूर दोनों महाजनोंने अवहेलनापूर्वक हँसते हुए कहा- 'दण्डिन् ! क्यों पूछ रहे हो ? क्या कुछ द्रव्य लेनेकी इच्छा है ? हमारी नावमें तो लता और पत्ते आदि भरे हैं।' ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर - 'तुम्हारी बात सच हो जाय'-ऐसा कहकर दण्डी संन्यासीका रूप धारण किये हुए भगवान् कुछ दूर जाकर समुद्रके समीप बैठ गये ॥ १-५॥
गते दण्डिनि साधुश्च कृतनित्यक्रियस्तदा । उत्थितां तरणीं दृष्ट्वा विस्मयं परमं ययौ ॥ ६ ॥
दृष्ट्वा लतादिकं चैव मूच्छितो न्यपतद् भुवि । लब्धसंज्ञो वणिक्पुत्रस्ततश्चिन्तान्वितोऽभवत् ॥ ७ ॥
तदा तु दुहितुः कान्तो वचनं चेदमब्रवीत् । किमर्थं क्रियते शोकः शापो दत्तश्च दण्डिना ॥ ८ ॥
शक्यते तेन सर्वं हि कर्तुं चात्र न संशयः । अतस्तच्छरणं यामो वाञ्छितार्थो भविष्यति ॥ ९ ॥
जामातुर्वचनं श्रुत्वा तत्सकाशं गतस्तदा। दृष्ट्वा च दण्डिनं भक्त्या नत्वा प्रोवाच सादरम् ॥ १० ॥
क्षमस्व चापराधं मे यदुक्तं तव सन्निधौ । एवं पुनः पुनर्नत्वा महाशोकाकुलोऽभवत् ॥ ११ ॥
दण्डीके चले जानेपर नित्यक्रिया करनेके पश्चात् उतराई हुई (जलमें ऊपरकी ओर उठी हुई) नौकाको देखकर साधु [वणिक्] अत्यन्त आश्चर्यमें पड़ गया और नावमें लता और पत्ते आदिको देखकर मूर्च्छित हो पृथ्वीपर गिर पड़ा। सचेत होनेपर वणिक्पुत्र चिन्तित हो गया। तब उसके दामादने इस प्रकार कहा- 'आप शोक क्यों करते हैं ? दण्डीने शाप दे दिया है, इस स्थितिमें वे ही [चाहें तो] सब कुछ कर सकते हैं, इसमें संशय नहीं । अतः उन्हींकी शरणमें हम चलें, वहीं मनकी इच्छा पूर्ण होगी'। दामाद (जामाता) - की बात सुनकर वह [साधु वणिक्] उनके पास गया और वहाँ दण्डीको देखकर उसने भक्तिपूर्वक उन्हें प्रणाम किया तथा आदरपूर्वक कहने लगा- आपके सम्मुख मैंने जो कुछ कहा है (असत्यभाषणरूप अपराध किया है), आप मेरे उस अपराधको क्षमा करें-ऐसा कहकर बारम्बार प्रणाम करके वह महान् शोकसे आकुल हो गया ॥ ६-११ ॥
प्रोवाच वचनं दण्डी विलपन्तं विलोक्य च। मा रोदीः शृणु मद्वाक्यं मम पूजाबहिर्मुखः ॥ १२ ॥
ममाज्ञया च दुर्बुद्धे लब्धं दुःखं मुहुर्मुहुः । तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं स्तुतिं कर्तुं समुद्यतः ॥ १३ ॥
दण्डीने उसे रोता हुआ देखकर कहा-'हे मूर्ख! रोओ मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजासे उदासीन होनेके कारण तथा मेरी आज्ञासे ही तुमने बारम्बार दुःख प्राप्त किया है।' भगवान्की ऐसी वाणी सुनकर वह उनकी स्तुति करने लगा- ॥ १२-१३ ॥
त्वन्मायामोहिताः सर्वे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकसः । न जानन्ति गुणान् रूपं तवाश्चर्यमिदं प्रभो ॥ १४॥
मूढोऽहं त्वां कथं जाने मोहितस्तव मायया । प्रसीद पूजयिष्यामि यथाविभवविस्तरैः ॥ १५ ॥
पुरा वित्तं च तत् सर्वं त्राहि मां शरणागतम् । श्रुत्वा भक्तियुतं वाक्यं परितुष्टो जनार्दनः ॥ १६ ॥
साधुने कहा- 'हे प्रभो ! यह आश्चर्यकी बात है कि आपकी मायासे मोहित होनेके कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके गुणों और रूपको यथावत् रूपसे नहीं जान पाते, फिर मैं मूर्ख आपकी मायासे मोहित होनेके कारण कैसे जान सकता हूँ! आप प्रसन्न हों। मैं अपनी धन-सम्पत्तिके अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मैं आपकी शरणमें आया हूँ। मेरा जो [नौकामें स्थित] पुराना धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें।' उस (वणिक्) - की भक्तियुक्त वाणी सुनकर भगवान् जनार्दन संतुष्ट हो गये ॥ १४–१६ ॥
वरं च वाञ्छितं दत्त्वा तत्रैवान्तर्दधे हरिः । ततो नावं समारुह्य दृष्ट्वा वित्तप्रपूरिताम् ॥ १७ ॥
कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम । इत्युक्त्वा स्वजनैः सार्धं पूजां कृत्वा यथाविधि ॥ १८ ॥
हर्षेण चाभवत् पूर्णः सत्यदेवप्रसादतः । नावं संयोज्य यत्नेन स्वदेशगमनं कृतम् ॥ १९ ॥
साधुर्जामातरं प्राह पश्य रत्नपुरीं मम। दूतं च प्रेषयामास निजवित्तस्य रक्षकम् ॥ २० ॥
भगवान् हरि उसे अभीष्ट वर प्रदान करके वहीं अन्तर्धान हो गये। उसके बाद वह साधु अपनी नौकामें चढ़ा और उसे धन-धान्यसे परिपूर्ण देखकर 'भगवान् सत्यदेवकी कृपासे हमारा मनोरथ सफल हो गया'-ऐसा कहकर स्वजनोंके साथ उसने भगवान्की विधिवत् पूजा की। भगवान् श्रीसत्यनारायणकी कृपासे वह आनन्दसे परिपूर्ण हो गया और नावको प्रयत्नपूर्वक सँभालकर उसने अपने देशके लिये प्रस्थान किया। साधु (वणिक्) -ने अपने दामादसे कहा-'वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखायी दे रही है'। इसके बाद उसने अपने धनके रक्षक दूतको अपने आगमनका समाचार देनेके लिये अपनी नगरीमें भेजा ॥ १७ - २० ॥
ततोऽसौ नगरं गत्वा साधुभार्यां विलोक्य च । प्रोवाच वाञ्छितं वाक्यं नत्वा बद्धाञ्जलिस्तदा ॥ २१ ॥
निकटे नगरस्यैव जामात्रा सहितो वणिक् । आगतो बन्धुवर्गैश्च वित्तैश्च बहुभिर्युतः ॥ २२ ॥
श्रुत्वा दूतमुखाद् वाक्यं महाहर्षवती सती। सत्यपूजां ततः कृत्वा प्रोवाच तनुजां प्रति ॥ २३ ॥
व्रजामि शीघ्रमागच्छ साधुसंदर्शनाय च । इति मातृवचः श्रुत्वा व्रतं कृत्वा समाप्य च ॥ २४ ॥
प्रसादं च परित्यज्य गता साऽपि पतिं प्रति । तेन रुष्टः सत्यदेवो भर्तारं तरणिं तथा ॥ २५ ॥
संहृत्य च धनैः सार्धं जले तस्यावमज्जयत् ।
शोकेन महता तत्र रुदन्ती चापतद् भुवि । दृष्ट्वा तथाविधां नावं कन्यां च बहुदुःखिताम् ॥ २७ ॥
भीतेन मनसा साधुः किमाश्चर्यमिदं भवेत् । चिन्त्यमानाश्च ते सर्वे बभूवुस्तरिवाहकाः ॥ २८ ॥
ततो लीलावती कन्यां दृष्ट्वा सा विह्वलाऽभवत् । विललापातिदुःखेन भर्तारं चेदमब्रवीत् ॥ २९ ॥
इदानीं नौकया सार्धं कथं सोऽभूदलक्षितः । न जाने कस्य देवस्य हेलया चैव सा हृता ॥ ३० ॥
सत्यदेवस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वा केन शक्यते । इत्युक्त्वा विललापैव ततश्च स्वजनैः सह ॥ ३१ ॥
ततो लीलावती कन्यां क्रोडे कृत्वा रुरोद ह ।
इसके बाद कलावती कन्या अपने पतिको न देख महान् शोकसे रुदन करती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी। नावका अदर्शन तथा कन्याको अत्यन्त दुःखी देख भयभीत मनसे साधु [ वणिक्]-ने सोचा- यह क्या आश्चर्य हो गया ? नावका संचालन करनेवाले भी सभी चिन्तित हो गये । तदनन्तर वह लीलावती भी कन्याको देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुःखसे विलाप करती हुई अपने पतिसे इस प्रकार बोली-'अभी-अभी नौकाके साथ वह (दामाद) कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवताकी उपेक्षासे वह नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायणका माहात्म्य कौन जान सकता है!' ऐसा कहकर वह स्वजनोंके साथ विलाप करने लगी और कलावती कन्याको गोदमें लेकर रोने लगी ॥ २६-३१ ॥
ततः कलावती कन्या नष्टे स्वामिनि दुःखिता ॥ ३२ ॥
गृहीत्वा पादुके तस्यानुगन्तुं च मनोदधे । कन्यायाश्चरितं दृष्ट्वा सभार्यः सज्जनो वणिक् ॥ ३३ ॥
अतिशोकेन संतप्तश्चिन्तयामास धर्मवित् । हृतं वा सत्यदेवेन भ्रान्तोऽहं सत्यमायया ॥ ३४ ॥
सत्यपूजां करिष्यामि यथाविभवविस्तरैः । इति सर्वान् समाहूय कथयित्वा मनोरथम् ॥ ३५ ॥
नत्वा च दण्डवद् भूमौ सत्यदेवं पुनः पुनः । ततस्तुष्टः सत्यदेवो दीनानां परिपालकः ॥ ३६॥
जगाद वचनं चैनं वचनं चैनं कृपया भक्तवत्सलः । त्यक्त्वा प्रसादं ते कन्या पतिं द्रष्टुं समागता ॥ ३७ ॥
अतोऽदृष्टोऽभवत् तस्याः कन्यकायाः पतिर्ध्रुवम्। गृहं गत्वा प्रसादं च भुक्त्वा साऽऽयाति चेत् पुनः ॥ ३८ ॥
लब्धभत्र सुता साधो भविष्यति न संशयः ।
- कलावती कन्या भी अपने पतिके नष्ट हो जानेपर दुःखी हो गयी और पतिकी पादुका लेकर उनका अनुगमन करनेके लिये उसने मनमें निश्चय किया। कन्याके इस प्रकारके आचरणको देख भार्यासहित वह धर्मज्ञ साधु वणिक् अत्यन्त शोक-संतप्त हो गया और सोचने लगा- या तो भगवान् सत्यनारायणने यह [ दामादके साथ धन-धान्यसे भरी इस नौकाका] अपहरण किया है अथवा हम सभी भगवान् सत्यदेवकी मायासे मोहित हो गये हैं। 'अपनी धन-शक्तिके अनुसार मैं भगवान् सत्यनारायणकी पूजा करूँगा'- सभीको बुलाकर इस प्रकार कहकर उसने अपने मनकी इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान् सत्यदेवको दण्डवत् प्रणाम किया। इससे दीनोंके परिपालक भगवान् सत्यदेव प्रसन्न हो गये। भक्तवत्सल भगवान्ने कृपापूर्वक कहा- 'तुम्हारी कन्या प्रसाद छोड़कर अपने पतिको देखने चली आयीं है, निश्चय ही इसी कारण उसका पति अदृश्य हो गया है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण करके वह पुनः आये तो हे साधो ! तुम्हारी पुत्री पतिको प्राप्त करेगी-इसमें संशय नहीं' ॥ ३२-३८/ ॥
कन्यका तादृशं वाक्यं श्रुत्वा गगनमण्डलात् ॥ ३९ ॥
क्षिप्रं तदा गृहं गत्वा प्रसादं च बुभोज सा । पश्चात् सा पुनरागत्य ददर्श स्वजनं पतिम् ॥ ४० ॥
ततः कलावती कन्या जगाद पितरं प्रति । इदानीं च गृहं याहि विलम्बं कुरुषे कथम् ॥ ४१ ॥
तच्छ्रुत्वा कन्यकावाक्यं संतुष्टोऽभूद् वणिक्सुतः । पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा विधिविधानतः ॥ ४२ ॥
धनैर्बन्धुगणैः सार्धं जगाम निजमन्दिरम्। पौर्णमास्यां च संक्रान्तौ कृतवान् सत्यस्य पूजनम् ॥ ४३ ॥
इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥ ४४॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥
अथान्यच्च प्रवक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः । आसीत् तुङ्गध्वजो राजा प्रजापालनतत्परः ॥ १॥
प्रसादं सत्यदेवस्य त्यक्त्वा दुःखमवाप सः । एकदा स वनं गत्वा हत्वा बहुविधान् पशून् ॥ २ ॥
आगत्य वटमूलं च दृष्ट्वा सत्यस्य पूजनम् । गोपाः कुर्वन्ति संतुष्टा भक्तियुक्ताः सबान्धवाः ॥ ३ ॥
राजा दृष्ट्वा तु दर्पेण न गतो न ननाम सः । ततो गोपगणाः सर्वे प्रसादं नृपसंनिधौ ॥ ४ ॥
संस्थाप्य पुनरागत्य भुक्त्वा सर्वे यथेप्सितम् । ततः प्रसादं संत्यज्य राजा दुःखमवाप सः ॥ ५ ॥
श्रीसूतजी बोले- श्रेष्ठ मुनियो! अब इसके बाद मैं दूसरी कथा कहूँगा, आप लोग सुनें। अपनी प्रजाका पालन करनेमें तत्पर तुङ्गध्वज नामक एक राजा था। उसने सत्यदेवके प्रसादका परित्याग करके दुःख प्राप्त किया । एक बार वह वनमें जाकर और वहाँ बहुत-से पशुओंको मारकर वटवृक्षके नीचे आया। वहाँ उसने देखा कि गोपगण बन्धु-बान्धवोंके साथ संतुष्ट होकर भक्तिपूर्वक भगवान् सत्यदेवकी पूजा कर रहे हैं। राजा यह देखकर भी अहंकारवश न तो वहाँ गया और न उसने भगवान् सत्यनारायणको प्रणाम ही किया। इसके बाद ( पूजनके अनन्तर) सभी गोपगण भगवान्का प्रसाद राजाके समीप रखकर वहाँसे लौट आये और इच्छानुसार उन सभीने भगवान्का प्रसाद ग्रहण किया। इधर राजाको प्रसादका परित्याग करनेसे बहुत दुःख हुआ ॥ १-५ ॥
तस्य पुत्रशतं नष्टं धनधान्यादिकं च यत् । सत्यदेवेन तत्सर्वं नाशितं मम निश्चितम् ॥ ६ ॥
अतस्तत्रैव गच्छामि यत्र देवस्य पूजनम्। मनसा तु विनिश्चित्य ययौ गोपालसन्निधौ ॥ ७ ॥
ततोऽसौ सत्यदेवस्य पूजां गोपगणैः सह । भक्तिश्रद्धान्वितो भूत्वा चकार विधिना नृपः ॥ ८॥
सत्यदेवप्रसादेन धनपुत्रान्वितोऽभवत् । इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥ ९ ॥
उसका सम्पूर्ण धन-धान्य एवं सभी सौ पुत्र नष्ट हो गये। राजाने मनमें यह निश्चय किया कि अवश्य ही भगवान् सत्यनारायणने हमारा नाश कर दिया है। इसलिये मुझे वहीं जाना चाहिये जहाँ श्रीसत्यनारायणका पूजन हो रहा था। ऐसा मनमें निश्चय करके वह राजा गोपगणोंके समीप गया और उसने गोपगणोंके साथ भक्ति - श्रद्धासे युक्त होकर विधिपूर्वक भगवान् सत्यदेवकी पूजा की। भगवान् सत्यदेवकी कृपासे वह पुनः धन और पुत्रोंसे सम्पन्न हो गया तथा इस लोकमें सभी सुखोंका उपभोग कर अन्तमें सत्यपुर (वैकुण्ठलोक)- को प्राप्त हुआ ॥ ६-९॥
य इदं कुरुते सत्यव्रतं परमदुर्लभम्। शृणोति च कथां पुण्यां भक्तियुक्तः फलप्रदाम् ॥ १० ॥
धनधान्यादिकं तस्य भवेत् सत्यप्रसादतः । दरिद्रो लभते वित्तं बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ ११ ॥
भीतो भयात् प्रमुच्येत सत्यमेव न संशयः । ईप्सितं च फलं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं व्रजेत् ॥ १२ ॥
इति वः कथितं विप्राः सत्यनारायणव्रतम् । यत् कृत्वा सर्वदुःखेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ॥ १३ ॥
[ श्रीसूतजी कहते हैं- ]जो व्यक्ति इस परम दुर्लभ श्रीसत्यनारायणके व्रतको करता है और पुण्यमयी तथा फलप्रदायिनी भगवान्की कथाको भक्तियुक्त होकर सुनता है, उसे भगवान् सत्यनारायणकी कृपासे धन-धान्य आदिकी प्राप्ति होती है। दरिद्र धनवान् हो जाता है, बन्धनमें पड़ा हुआ बन्धनसे मुक्त हो जाता है, डरा हुआ व्यक्ति भयसे मुक्त हो जाता है-यह सत्य बात है, इसमें संशय नहीं । [इस लोकमें वह] सभी ईप्सित फलोंका भोग प्राप्त करके अन्तमें सत्यपुर (वैकुण्ठलोक) - को जाता है। हे ब्राह्मणों! इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे भगवान् सत्यनारायणके व्रतको कहा, जिसे करके मनुष्य सभी दुःखोंसे मुक्त हो जाता है ॥ १०-१३॥
विशेषतः कलियुगे सत्यपूजा फलप्रदा । केचित् कालं वदिष्यन्ति सत्यमीशं तमेव च ॥ १४॥
सत्यनारायणं केचित् सत्यदेवं तथापरे । नानारूपधरो भूत्वा सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥ १५ ॥
भविष्यति कलौ सत्यव्रतरूपी सनातनः । श्रीविष्णुना धृतं रूपं सर्वेषामीप्सितप्रदम् ॥ १६ ॥
य इदं पठते नित्यं शृणोति मुनिसत्तमाः । तस्य नश्यन्ति पापानि सत्यदेवप्रसादतः ॥ १७॥
व्रतं यैस्तु कृतं पूर्वं सत्यनारायणस्य च । तेषां त्वपरजन्मानि कथयामि मुनीश्वराः ॥ १८ ॥
कलियुगमें तो भगवान् सत्यदेवकी पूजा विशेष फल प्रदान करनेवाली है। भगवान् विष्णुको ही कुछ लोग काल, कुछ लोग सत्य, कोई ईश और कोई सत्यदेव तथा दूसरे लोग सत्यनारायण नामसे कहेंगे । अनेक रूप धारण करके भगवान् सत्यनारायण सभीका मनोरथ सिद्ध करते हैं। कलियुगमें सनातन भगवान् विष्णु ही सत्यव्रत-रूप धारण करके सभीका मनोरथ पूर्ण करनेवाले होंगे। हे श्रेष्ठ मुनियो ! जो व्यक्ति नित्य भगवान् सत्यनारायणकी इस व्रत-कथाको पढ़ता है, सुनता है, भगवान् सत्यनारायणकी कृपासे उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। हे मुनीश्वरो ! पूर्वकालमें जिन लोगोंने भगवान् सत्यनारायणका व्रत किया था, उनके अगले जन्मका वृत्तान्त कहता हूँ, आप लोग सुनें ॥ १४-१८॥
शतानन्दो महाप्राज्ञः सुदामा ब्राह्मणो ह्यभूत्। तस्मिञ्जन्मनि श्रीकृष्णं ध्यात्वा मोक्षमवाप ह ॥ १९ ॥
काष्ठभारवहो भिल्लो गुहराजो बभूव ह । तस्मिञ्जन्मनि श्रीरामं सेव्य मोक्षं जगाम वै ॥ २० ॥
उल्कामुखो महाराजो नृपो दशरथोऽभवत्। श्रीरङ्गनाथं सम्पूज्य श्रीवैकुण्ठं तदागमत् ॥ २१ ॥
धार्मिकः सत्यसन्धश्च साधुर्मोरध्वजोऽभवत्। देहार्धं क्रकचैश्छित्त्वा दत्त्वा मोक्षमवाप ह ॥ २२ ॥
तुङ्गध्वजो महाराजः स्वायम्भुवोऽभवत् किल । सर्वान् भागवतान् कृत्वा श्रीवैकुण्ठं तदाऽगमत् ॥२३ ॥
भूत्वा गोपाश्च ते सर्वे व्रजमण्डलवासिनः । निहत्य राक्षसान् सर्वान् गोलोकं तु तदा ययुः ॥ २४ ॥
।। इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायणव्रतकथायां पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥