इकाई - 1 वैदिक साहित्य का समान्य परिचय
भारतीय संस्कृति में वेदों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं सर्वोच्च हैं । भारतीय संस्कृति की मुख्य आधारशिला वेद '' ही हैं । हिन्दुओं के रहन - सहन आचार विचार एवं धर्म - कर्म तथा संस्कृति को समझने के लिए वेदों का ज्ञान आवश्यक हैं । भारतीय संस्कृति में वेद सनातन वर्णाश्रम धर्म के मूल ग्रन्थ हैं । अपने दिव्य चक्षु के माध्यम से साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों के द्वारा अनूभूत आध्यात्मशास्त्र के तत्त्वों की विशाल विमल राशि का नाम वेद हैं । मनु के अनुसार वेद पितरों देवों का वह सनातन चक्षु हैं जिसके माध्यम से कालातीत और देशातीत का भी दर्शन सम्भव हैं । पितृदेवमनुष्याणां वेदचक्षुः सनातनम् - मनुस्मृति ।। वेदों में वर्णित विषयों का स्मृति , पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में विस्तारपूर्वक वर्णन प्राप्त होता है । वेदों की व्याख्या उपनिषद् , दर्शन तथा धर्मशास्त्रों में विभिन्न प्रकार से उपलब्ध होती हैं , जिसमें उपनिषद् तथा दर्शन वेदों की आध्यात्मिक व्याख्या को प्रस्तुत करते हैं । दर्शनों मे पूर्व मीमांसा दर्शन मुख्य रूप से वेदों में प्रतिपादित कर्मकाण्ड के विषयों पर ही आधारित हैं । वेद विश्व के सभी प्राचीन साहित्य ग्रन्थों में सर्वप्राचीन ग्रन्थ हैं । ऋषियों ने पश्यन्ती तथा मध्यमा वाणी का आश्रय लेकर अपने हृदय में वेदों का ज्ञान प्राप्त किया था । तथा वैखरी वाणी का आश्रय लेकर अपने शिष्यों और प्रशिष्यों को यह वेदज्ञान दिया ।
वेद शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थ-
वेद शब्द की व्युत्पत्ति ज्ञानार्थक 'विद ज्ञाने' धातु से 'घञ्' प्रत्यय करने पर सिद्ध होती है। इसका अर्थ है - 'ज्ञान' । अतः वेद शब्द का अर्थ होता है - 'ज्ञान की राशि या संग्रह' । सर्वज्ञानमयो हि सः - मनुसमृति । पाणिनिव्याकरण की दृष्टि के अनुसार वेद शब्द की व्युत्पत्ति चार धातुओं से विभिन्न अर्थों में होती है ।
1. विद् सत्तायाम् +श्यन् (होना, दिवादि) ।
2 विद् ज्ञाने + शप् लुक् (जानना, अदादि)।
3. विद् विचारणे + श्नम् (विचारना, रुधादि) ।
4. विढ्न लाभे + श (प्राप्त करना, तुदादि) । इसके लिए कारिका है-
“सत्तायां विद्यते ज्ञाने, वेत्ति विन्ते विचारणे । विन्दति विन्दते प्राप्तौ, श्यन्लुक्नम्शेष्विदं क्रमात् " ||
ऋक्प्रातिशाख्य की व्याख्या में 'विष्णुमित्र' ने वेद का अर्थ किया है ।“विद्यन्ते ज्ञायन्ते लभ्यन्ते एभिर्धर्मादिपुरुषार्था इति वेदाः”- विष्णुमित्र। अर्थात् जिन ग्रन्थों के द्वारा धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी पुरुषार्थ-चतुष्टय के अस्तित्व का बोध होता है, तथा जिनसे पुरुषार्थ-चतुष्टय की प्राप्ति होती है । आचार्य 'सायण' वेद शब्द की व्याख्या करते हैं- “इष्टप्राप्त्यनिष्ट-परिहारयोरलौकिकम् उपायं यो ग्रन्थो वेदयति, स वेदः”- (तैत्तिरीय संहिता) अर्थात् जो ग्रन्थ इष्ट-प्राप्ति और अनिष्ट-निवारण का अलौकिक उपाय बताता है, उसे वेद कहते हैं।
वेदों के अर्थ में प्रयुक्त मुख्य शब्द-
वेदों के अर्थ में श्रुति, निगम, आगम, त्रयी, छन्दस् आम्नाय्, स्वाध्याय इन शब्दों का भी प्रयोग होता है ।
1. श्रुति- वेदों को गुरु शिष्य परंपरा से श्रवण के द्वारा सुरक्षित रखे जाने पर श्रुति कहा गया है ।
2. निगम- निगम का अर्थ सार्थक या अर्थबोधक है । वेदों को साभिप्राय, सुसंगत और गंभीर अर्थ बताने के लिये 'निगम' कहा जाता है।
3. आगम- आगम शब्द का प्रयोग वेद और शास्त्र दोनों के लिए होता
4. त्रयी- त्रयी शब्द का प्रयोग वेदों के लिए होता है । त्रयी का अर्थ है - तीन वेद, ऋक्, यजु और साम वेद। इसके अन्तर्गत चारों वेदों को रखा गया है।
5. छन्दस्- छन्दस् शब्द 'छदि संवरणे' चुरादिगणी धातु से बनता है। इसका अर्थ है - 'ढकना या आच्छादित करना' । चारों वेदों के लिए 'छन्दस्' शब्द का प्रयोग होता है । पाणिनि ने “बहुलं छन्दसि”(अष्टा.2.4.39, 73,76) सूत्रों के द्वारा वेदों को छन्दस् कहा है। यास्क ने छन्दस शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए निरुक्त में 'छन्दांसि छादनात्' कहा है।
6. आम्नाय- आम्नाय शब्द 'म्ना अभ्यासे' भ्वादिगणी धातु से बनता है। यह वेदों के प्रतिदिन अभ्यास या स्वाध्याय पर बल देता है । दण्डी ने 'दशकुमारचरित में वेदों के लिए आम्नाय का प्रयोग करते हुए कहा है- अधीती चतुर्षु आम्नायेषु'- (दण्डी)। अर्थात् चारों वेदों का ज्ञाता ।
7. स्वाध्याय- स्वाध्याय शब्द 'स्व' अर्थात् 'आत्मा' के विषय में मनन चिन्तन तथा प्रतिदिन अभ्यास पर बल देता है । शतपथ ब्राह्मण में वेदों के लिए स्वाध्याय शब्द का प्रयोग हुआ है । “स्वाध्यायोऽध्येतव्यः" अर्थात् वेदों का अध्ययन करना चाहिए । उपनिषदों में भी वेदों के अर्थ में स्वाध्याय शब्द का प्रयोग है- 'स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्' (तैत्ति. उप. 1.11.1) अर्थात् वेदों के अध्ययन और प्रचार में प्रमाद न करे ।
वेदों का रचनाकाल-
वेदों का रचनाकाल निर्धारण वैदिक साहित्येतिहास की एक जटिल- समस्या है। विभिन्न विद्वानों ने भाषा, रचनाशैली, धर्म एवं दर्शन, भूगर्भशास्त्र, ज्योतिष, उत्खनन में प्राप्त सामग्री, अभिलेख आदि के आधार पर वेदों का रचनाकाल निर्धारित करने का प्रयास किया है, किन्तु इनसे अभी तक कोई सर्वमान्य रचनाकाल निर्धारित नहीं हो पाया है। इसका कारण यही है कि सबका किसी न किसी मान्यता के साथ पूर्वाग्रह है। 18वीं शती के अन्त तक भारतीय विद्वानों की यह धारणा थी कि वेद अपौरुषेय है, अर्थात किसी मनुष्य की रचना नहीं है। संहिताओं, ब्राह्मणों, दार्शनिक ग्रन्थों, पुराणों तथा अन्य परवर्ती साहित्य में अनेक उद्धरण मिलते हैं जिनमें वेद के अपौरुषेयत्व का कथन मिलता है। वेद भाष्यकारों की भी परम्परा वेद को- अपौरुषेय ही मानती रही। इस प्रकार वेद के अपौरुषेयत्व की विद्वानों के द्वारा वेदाध्ययन का महत्त्वपूर्ण प्रयास किया गया, यह धारणा प्रतिष्ठित होने लगी कि वेद अपौरुषेय नहीं, मानव ऋषियों की रचना है, अतएव उनके कालनिर्धारण की सम्भावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। फलस्वरूप, अनेक पाश्चात्य विद्वानों के द्वारा इस दिशा में प्रयास किया गया। वैदिक आर्य-संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है, इस तथ्य को चूँकि पाश्चात्य मानसिकता अंगीकार न कर सकी, इसलिये वेदों का रचनाकाल ईसा से पूर्व मानना उनके लिये सम्भव नहीं था, क्योंकि विश्व की अन्य संस्कृतियों की सत्ता इतने सुदूरकाल तक प्रमाणित नहीं हो सकती थी, यद्यपि उन्होंने इतना अवश्य स्वीकार किया कि वेद विश्व का प्रचीनतम साहित्य है। इस प्रकार वेद विश्व का प्राचीनतम वाङ्मय है इस विषय में भारतीय तथा पाश्चात्य सभी विद्वान् एकमत हैं, वैमत्य केवल इस बात में है कि इसकी प्राचीनता कालावधि में कहाँ रखी जाय। वेद के रचनाकाल-निर्धारण की दिशा में अब तक विद्वानों ने जो कार्य किये हैं तथा एतद्विषयक अपने मत स्थापित किये है उनका यहाँ संक्षेप में उल्लेख किया गया है-
मैक्समूलर-
वैदिक वाङ्मय के निश्चित-कालनिर्धारण की दिशा में मैक्समूलर ने सर्वप्रथम प्रयास किया था, इसलिये सभी विद्वानों का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हो गया । प्रारम्भ में अधिकांश विद्वानों ने उसके इस मत को प्रामाणिक माना। बाद में कुछ ही ऐसे विद्वान थे जो मैक्समूलर के समर्थक बने रहे। अधिकांश ने अपनी धारणा बदल ली और उसके मत की काफ़ी आलोचना की । मैक्समूलर ने गौतम बुद्ध के आविर्भाव को अपना आधार माना है । बुद्ध ने वैदिकी हिंसा का खंडन किया है, अतः वैदिक काल बुद्ध के जन्म से पूर्व होना चाहिए। इस आधार पर उन्होंने वैदिक काल को चार भागों में विभक्त किया है-
(क) 1200 ई.पू. से 1000 ई.पू. । यह छन्द-काल है । इसमें निविद् आदि स्फुट वैदिक मंत्रों की रचनाएँ हुई । (ख) 1000 ई.पू. से 800 ई.पू. । यह मन्त्र-काल है । इसमें वैदिक संहिताओं की रचना हुई और उनका संकलन हुआ।
(ग) 800 ई.पू. से 600 ई.पू. । यह ब्राह्मणकाल है । इसमें ब्राह्मण ग्रन्थों की रचना हुई ।
(घ) 600 ई.पू. से 400 ई.पू. । यह सूत्रकाल है । इसमें श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों आदि की रचना हुई ।
कुछ समय तक यह मत अत्यन्त प्रचलित रहा, किन्तु बाद में स्वयं मैक्समूलर ने इस मत को अमान्य कर दिया। 1400 ई.पू. के बोगाज़कोई के शिलालेख की प्राप्ति के बाद यह मत सर्वथा निरस्त हो गया ।
ए. बेबर-
ए. बेबर जर्मन के विद्वान हैं इनका कथन है- "वेदों का समय निश्चित नहीं किया जा सकता । वे उस तिथि के बने हुए हैं जहाँ तक पहुँचने के लिए हमारे पास उपयुक्त साधन नहीं है । वर्तमान प्रमाण हम लोगों को उस समय के उन्नत शिखर तक पहुँचाने में असमर्थ हैं”। प्रो. वेबर कहते हैं कि "वेदों के समय को कम से कम 1200 ई.पू. या 1500 ई.पू. के बाद का कथमपि स्वीकार नहीं किया जा सकता"। प्रो. वेबर ने अपनी पुस्तक "History of indian literature" में यहाँ तक लिख दिया है कि वेदों का काल निर्धारण के लिए प्रयत्न करना सर्वथा बेकार है - "Any such of attempt of defining the relic antiquity is absolutely fruitless"
जैकोबी-
प्रसिद्ध जर्मन वैदिक विद्वान् श्री याकोबी ने भी ज्योतिष को आधार माना है। उन्होंने ध्रुव तारा को अपना लक्ष्य बनाया है विवाह-संस्कार में 'ध्रुवं पश्य' विधि है । ध्रुव तारा भी अपने स्थान से पीछे हटता है । उस आधार पर विचार करके उन्होंने ऋग्वेद का समय (4500-2500 ई.पू.) माना है ।
बालगंगाधर तिलक -
श्री तिलक ने 'ज्योतिष गणना' के आधार पर ऋग्वेद का रचनाकाल (6 हजार ई.पूर्व से 4 हजार ई.पू.) माना है । उन्होंने विभिन्न नक्षत्रों में ‘वसन्त-संपात’ (Vernal Equinox, वर्नल इक्विनोक्स) के प्रमुख आधार पर यह तिथि निर्धारित की है । उन्होंने वैदिक काल को चार भागों में विभक्त किया है और विभिन्न स्तरों में वैदिक साहित्य के अंगों का उल्लेख किया है ।
अदिति काल - 6000-4000- निविद् मंत्र (गद्य-पद्यात्मक)
मृगशिरा काल - 4000-2500- ऋग्वेद के अधिकांश सूक्त।
कृत्तिका काल - 2500 1400 चारों वेदों का संकलन।
सूत्र काल - 1400-500- सूत्र ग्रन्थ दर्शन ग्रन्थ।
इनके अनुसार वेदों की रचना 6000 ई.पू. तथा संहिता रूप 2500 ई.पू. से 1400 ई.पू. के मध्य हुई है ।
एम.विण्टरनित्स-
अपने इतिहास में विन्टरनित्स ने सभी मतों की विस्तृत आलोचना के बाद अपना समन्वयात्मक मत दिया है कि वैदिक काल 2500 से 500 ई.पू. तक माना जा सकता है । इस प्रकार ऋग्वेद का समय 2500 ई.पू. है ।
भारतीय परम्परागत विचार -
(1) श्री स्वामी दयानन्द सरस्वती - आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने वेदों आदि के सन्दर्भों के द्वारा प्रतिपादित किया है कि वेदों का उद्भव परमात्मा से सृष्टि के प्रारम्भ में हुआ। उसने अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद को प्रकट किया। उससे ही अथर्ववेद भी प्रकट हुआ।
(2) श्री अविनाशचन्द्र दास -श्री दास ने ऋग्वेद में प्राप्त भूगोल एवं भूगर्भ- संबन्धी साक्ष्य के आधार पर ऋग्वेद का रचनाकाल 25 हजार वर्ष ई. पूर्व माना है । ऋग्वेद के एक मंत्र में वर्णन है कि सरस्वती नदी पर्वत (हिमालय) से निकलकर समुद्र में मिलती है। पुरातत्त्व की गणना के अनुसार यह समुद्र राजस्थान में था। अब उस सरस्वती नदी और राजस्थान के समुद्र का लोप हो गया है । यह घटना 25 हजार वर्ष ई.पू. की है। उस समय दोनों की सत्ता थी । अत: ऋग्वेद इससे पूर्व बन चुका था ।
(3) श्री शंकर वालकृष्ण दीक्षित - श्री दीक्षित ने उर्युक्त रूप से 'शतपथ ब्राह्मण' का समय 2500 ई.पू. मानकर चारों वेदों की रचना के लिए 1000 वर्ष का समय मानकर ऋग्वेद का रचनाकाल 3500 ई.पू. माना है ।
नीचे दिए गए विवरण के आधार पर एक तालिका (Table) प्रस्तुत की गई है जिसमें मत प्रतिपादक, आधार, और रचनाकाल को क्रमबद्ध रूप से दर्शाया गया है :
मत प्रतिपादक – आधार – रचनाकाल सारणी
क्रम | मत प्रतिपादक | आधार | रचनाकाल |
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1 | दयानन्द सरस्वती | वेद मन्त्र | सृष्टि का प्रारम्भ |
2 | दीनानाथ शास्त्री चुलेट | ज्योतिष | तीन लाख वर्ष पूर्व |
3 | अविनाश चन्द्र दास | भूगर्भ, भूगोल, सरस्वती नदी | 25000 ई.पू. |
4 | नारायण भवानराव पावगी | भूगर्भ ज्योतिष | 7000 ई.पू. |
5 | बाल गंगाधर तिलक | ज्योतिष (बसन्त सम्पात सिद्धांत) | 6000 ई.पू. – 4000 ई.पू. |
6 | डॉ. आर. जी. भंडारकर | वेद मन्त्र | 6000 ई.पू. |
7 | शंकर बालकृष्ण दीक्षित | ज्योतिष | 3500 ई.पू. |
8 | एच. याकोबी (H. Jacobi) | ज्योतिष – ध्रुव तारा | 4500 – 2500 ई.पू. |
9 | विन्टरनित्स (M. Winternitz) | मितानी शिलालेख | 2500 – 500 ई.पू. |
10 | वेबर (Albrecht Weber) | गौतम बुद्ध का अविर्भाव | 1500 – 1200 ई.पू. |
11 | मैक्समूलर (Max Müller) | बौद्ध साहित्य | छ 1200 म १००० ब्रा ८००० सू ६०० ई.पू. छमब्रासू
|
निष्कर्ष -4000-1000 ई.पू. वेदों का रचना काल माना गया है।
📚 वैदिक साहित्य का विभाजन
क्रम | भाग का नाम | विवरण |
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1 | वैदिक संहिताएँ | मन्त्रों का संकलन – ऋचाएँ, यज्ञ मन्त्र, स्तुतियाँ आदि |
2 | ब्राह्मण ग्रन्थ | यज्ञ-विधियों की गद्यात्मक व्याख्या |
3 | आरण्यक ग्रन्थ | ध्यान, उपासना, ब्रह्मविद्या से संबंधित शिक्षाएँ |
4 | उपनिषद् | आत्मा, ब्रह्म, मोक्ष, अद्वैत जैसे दर्शनिक विषय – वेदान्त कहलाते हैं |
🔆 वेदों की चार संहिताएँ
क्रम | वेद का नाम | संहिता का प्रकार | मुख्य विषयवस्तु |
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1 | ऋग्वेद संहिता | स्तोत्र (मन्त्रों की ऋचाएँ) | देवताओं की स्तुतियाँ, प्राचीनतम वेद |
2 | यजुर्वेद संहिता | गद्य + पद्य (कर्मकाण्डीय मन्त्र) | यज्ञों के मन्त्र और विधियाँ |
3 | सामवेद संहिता | संगीतात्मक (गायन शैली में मन्त्र) | ऋचाओं का संगीतमय रूप |
4 | अथर्ववेद संहिता | विविध विषयों से युक्त मन्त्र | चिकित्सा, जादू-टोना, गृहस्थ जीवन आदि |
व्याकरण के अनुसार संहिता का अर्थ है "परः संनिकर्षः संहिता" (अष्टा.1.4.109) पदों का संधि आदि के द्वारा समन्वित रूप संहिता कहा जाता है । इस दृष्टि से मंत्रभाग को संहिता कहते हैं ।
🔱 संहिताओं के ऋत्विज् (ऋत्विक्)
1. होता - यह यज्ञ में ऋग्वेद की ऋचाओं का पाठ करता है, अतएव ऋग्वेद को ‘होतृवेद' भी कहा जाता हैं । ऐसी देवस्तुति वाली ऋचाओं4
का परिभाषिक नाम -“शस्त्र” है । लक्षण- "अप्रगीत-मन्त्र-साध्या स्तुतिः वेदाङ्ग- शस्त्रम्” अर्थात् गानरहित स्तुतिपरक मन्त्र ।
2. अध्वर्यु - यजुर्वेद के मंत्रों का पाठ करता है। यही यज्ञ भी करता है और यज्ञ में घृत आदि की आहुति देता है ।
3. उद्गाता- यह सामवेद के मत्रों का पाठ करता है, तथा देवस्तुति में मन्त्रों का गान करता है।
4. ब्रह्मा ब्रह्मा यज्ञ का संचालन करता है, वही यज्ञ का अधिष्ठाता और निर्देशक होता है यह चतुर्वेदवित् होता है। त्रुटियों के संशोधन के कारण इसको यज्ञ का भिषज, वैद्य कहा जाता है। । ऋग्वेद के एक मंत्र में चारों ऋत्विजों के कम्मों का निर्देश है- “ऋचां त्वः पोषमास्ते पुपुष्वान्, गायत्रं त्वो गायति शक्करीषु । ब्रह्मा त्वो वदति जातविद्यां यज्ञस्य मात्रां विमिमीत उ त्वः" । (ऋग्. 10.71.11)
📜 वेद, ऋत्विज् और सहायक पुरोहित तालिका
क्रम | वेद | मुख्य ऋत्विज् | सहायक ऋत्विज् / अधिकारी |
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1 | ऋग्वेद | होता | मैत्रावरुण, अच्छवाक्, ग्रावस्तुत |
2 | यजुर्वेद | अध्वर्यु | प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा, उन्नेता |
3 | सामवेद | उद्गाता | प्रस्तोता, प्रतिहर्ता, सुब्रह्मण्य |
4 | अथर्ववेद | ब्रह्मा | ब्राह्मणाच्छंसी, आग्नीघ्र, पोता |
वैदिक वाङ्मय का द्विविध विभाजन -
वेदों में वर्णित विषय की दृष्टि से समस्त वैदिक वाङ्मय को दो भागों में बाँटा गया है-
1. कर्मकाण्ड- वेद, ब्राह्मण।
2. ज्ञानकांड- आरण्यक, उपनिषद।
1. कर्मकाण्ड- 'वेदों' और 'ब्राह्मण ग्रन्थों' को "कर्मकाण्ड” के अन्तर्गत रखा जाता है, क्योंकि इनमें विविध यज्ञों के कर्मकाण्ड की पूरी प्रक्रिया दी गयी है। वेदों में यज्ञीय कर्मकाण्ड से संबद्ध मंत्र हैं और ब्राह्मण ग्रन्थों में उनकी विस्तृत व्याख्या है।
2. ज्ञानकांड- "ज्ञानकांड" के अन्तर्गत 'आरण्यक ग्रन्थ' और 'उपनिषद' हैं । आरण्यक ग्रन्थों में यज्ञिय क्रियाकलाप की आध्यात्मिक एवं दार्शनिक तत्त्वों की समीक्षा की गयी है। इनमें ब्रह्म, ईश्वर, जीव, प्रकृति, मोक्ष आदि का वर्णन है । अतएव आरण्यक और उपनिषदों को ज्ञानकांड कहा जाता है ।
वेदाङ्ग-
वेदों के ज्ञान के लिए सहायक ग्रन्थों को वेदाङ्ग कहा गया है । ये वेदों के व्याकरण, यज्ञों के कालनिर्धारण, शब्दों के निर्वचन, मंत्रों की पद्यात्मक रचना, यज्ञीय क्रियाकलाप का सांगोपांग विवेचन एवं मंत्रों के उच्चारण आदि विषयों से संबद्ध हैं।
वेदांगों की तालिका (6 वेदांग)
क्रम | वेदांग का नाम | अर्थ / विषय-वस्तु | उद्देश्य / कार्य |
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1 | शिक्षा (Śikṣā) | उच्चारण और स्वर (ध्वनि-विज्ञान) | वेदों के शुद्ध उच्चारण की विधि सिखाना |
2 | कल्प (Kalpa) | विधि-विधान (यज्ञ-प्रक्रिया) | यज्ञों व अनुष्ठानों की विधियाँ बताना |
3 | व्याकरण (Vyākaraṇa) | भाषा और व्याकरण | वैदिक मन्त्रों की सही व्याख्या और अर्थ स्पष्ट करना |
4 | निर्वचन / निरुक्त (Nirukta) | शब्दों की व्युत्पत्ति (शब्द-व्याख्या) | दुर्बोध वैदिक शब्दों का अर्थ बताना |
5 | छन्द (Chandas) | वैदिक छंदशास्त्र (छंद = छंदों का ज्ञान) | मन्त्रों के छंदों की पहचान और लयबद्धता बनाए रखना |
6 | ज्योतिष (Jyotiṣa) | खगोल और कालज्ञान | यज्ञों के लिए शुभ समय निर्धारण (मुहूर्त, तिथि आदि) |
“शिक्षा व्याकरणं छन्दो निरुक्तं ज्योतिषं तथा । कल्पश्चेति षडङ्गानि वेदस्याहुर्मनीषिणः” ।।
ये वेदांग सामान्यतया सूत्रशैली में लिखे गए है ।
वैदिक पाठ-