'' राष्ट्री भाग 3 सामान्य हिन्दी शास्त्री द्वितीयवर्ष प्रथम सत्रार्ध्द '' National Part 3 General Hindi Shastri Second Year First Semester

भूमिका (उदाहरणात्मक)

हिंदी साहित्य भारतीय संस्कृति का दर्पण है, जो न केवल भाषा की मिठास को प्रस्तुत करता है, बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना को भी जाग्रत करता है। प्रस्तुत पुस्तक "[आधुनिक हिन्दी काव्य ]" हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों, अध्यापकों तथा पाठकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।


इस पुस्तक में [विषय/वर्ग] से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्यों, अवधारणाओं, और साहित्यिक दृष्टिकोणों को सरल, स्पष्ट एवं संगठित रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसमें भाषा की मूलभूत विशेषताओं, व्याकरणिक पक्षों, साहित्यिक विधाओं तथा लेखकों की कृतियों पर विशेष ध्यान दिया गया है।


लेखन के दौरान यथासंभव यह प्रयास किया गया है कि विषयवस्तु न केवल ज्ञानवर्धक हो, बल्कि विद्यार्थियों के परीक्षा-संदर्भ में भी सहायक सिद्ध हो। पुस्तक को रोचक और सहज बनाने के लिए उदाहरणों, उद्धरणों एवं सारगर्भित व्याख्याओं को भी स्थान दिया गया है।


हमें पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में एक सार्थक भूमिका निभाएगी और पाठकों की अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी।


लेखक
( शिशिर कुमार पांडेय ) 

( काव्य - खंड )

आधुनिक हिन्दी काव्य 

  1. भारत में 1857 के स्वातन्त्र्य समर को युगान्तर उपस्थित करने वाली घटना के रूप में देखा जाता हैं । ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भारत की जनता , विशेषकर , हिन्दी भाषी जनता का यह पहला उद्घोष था । भले ही यह विद्रोह दबा दिया गया लेकिन दमन के बाद भी स्वातन्त्र्य चेतना आगें अनेक रूपो में व्यक्त हुई । इसी चेतना का परिणाम उन्नीसवीं सदी का सांस्कृतिक पुनर्जागरण है जो एक तरफ भारतीयों के मन में अपने अतीत के प्रति गौरव का भाव जगा रहा था तो दूसरी तरफ देश दशा को सुधारने के लिए समाज सुधारों की ओर भी प्रवृत्त कर रहा था। पश्चिमी दर्शन, साहित्य, विज्ञान एवं चिन्तन के संपर्क में आने के बाद भारतीय मनीषी भी नए ढंग से सोचने की ओर प्रवृत्त हुए। पराधीनता के बोध ने स्वाधीनता के महत्त्व को नए ढंग का अनुभव कराया। 1857 के बाद भारत का प्रशासन सीधे महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया। बदली हुई परिस्थितियों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई और भारत ने मध्ययुग के अंधकार से निकलकर आधुनिक युग के प्रकाश का दर्शन किया। एक पढ़े-लिखे नए मध्यवर्ग का उदय हुआ। नए मध्यवर्ग के विकास ने कवियों को राज्याश्रय से बाहर निकाला और कविता अधिक लोकोन्मुख हुई। प्रेस के विकास की इस प्रक्रिया ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से नए पाठक समाज का विकास हुआ। इससे नए साहित्य की माँग बढ़ी और साहित्य में नए ढंग का बदलाव आया। इस युग के भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सबसे महत्त्वपूर्ण कवि, लेखक, तथा संपादक हैं जिन्हें आधुनिक युग का जनक माना जाता है। हिन्दी में आधुनिक काल की शुरुआत 1850 से मानी जाती है। भारतेन्दु इस युग के सर्वमान्य नायक थे। भाषा और साहित्य पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा। इस युग की साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना के निर्माण पर उनकी स्पष्ट छाप है। वे एक समर्थ गद्यकार होने के साथ ही संवेदनशील कवि भी थे। युग की नई आवश्यकताओं के अनुरूप उन्होंने गद्य एवं कविता को नए-नए विषयों की ओर मोड़ा। विषय बदला तो भाषा भी बदल गई। गद्य में खड़ी बोली का प्रयोग तो उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ से ही होने लगा था, पर खड़ी बोली का परिष्कार आधुनिक युग के लेखकों के हाथों संपन्न हुआ। कविता की भाषा अभी भी ब्रजभाषा ही चली आ रही थी। भारतेन्दु ने कविता की ब्रजभाषा को भी बोलचाल की भाषा के साँचे में ढालकर सजीव बनाने का उद्यम किया। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का मूल्याङ्कन करते हुए लिखा है, “हिन्दी साहित्य अपने पुराने रास्ते पर ही पड़ा था। भारतेन्दु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर जीवन के साथ फिर लगा दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद पड़ रहा था उसे उन्होंने दूर किया। हमारे साहित्य को नए-नए विषयों की ओर प्रवृत्त करने वाले हरिश्चंद्र ही हुए।" उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब हिन्दी में आधुनिक काल की शुरुआत हुई तो गद्य तो खड़ी बोली में ही लिखा गया पर काव्य-रचना की भाषा ब्रज भाषा ही रही। भारतेन्दु भी कविता ब्रज भाषा में ही करते रहे।

  2. उन्होंने खड़ी बोली हिन्दी में कविता लिखने की कोशिश की पर मन न रमा। यह कार्य 19वीं सदी के अंतिम दशक में श्रीधर पाठक के द्वारा संपन्न हुआ। श्रीधर पाठक को हम खड़ी बोली हिन्दी का पहला कवि मानते हैं। श्रीधर पाठक रचित 'एकांतवासी योगी' को खड़ी बोली हिन्दी का प्रथम काव्य संग्रह होने का श्रेय प्राप्त है। इस आख्यान काव्य का विषय 'किसी के प्रेम में योगी होना और प्रकृति के निर्जन क्षेत्र में कुटी छाकर रहना' है। पाठक जी की अन्य प्रसिद्ध कविताएं 'काश्मीर सुषमा', 'गुनवंत हेमंत' आदि प्रकृति-प्रेम की हैं। उनको हिन्दी में स्वच्छंदतावादी काव्य का प्रवर्तक माना जाता है। वे अपने समय के अनुकूल देश-प्रेम और समाज-सुधार की भावाभिव्यक्ति में भी सक्रिय थे। आधुनिक हिंदी कविता में सांस्कृतिक पुनर्जागरण और राष्ट्रीय जागरण की भावना से ओत प्रोत होकर स्वच्छंदतावाद का विकास हुआ। स्वच्छंदतावादी प्रवृत्तियों का विकास अनंतर चलकर रामनरेश त्रिपाठी के 'पथिक' 'मिलन' और 'स्वप्न' आदि काव्य-कृतियों में हुआ। रामनरेश त्रिपाठी ने हिन्दी में लोकगीतों के संग्रह और उनके प्रकाशन का महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया। लोकगीतों की मिठास का प्रभाव उनके गीतों पर भी पड़ा। 'पथिक' में प्रकृति के मनोरम चित्र और मार्मिक राष्ट्र-प्रेम की भावनाओं की अभिव्यक्ति हुई है। 'पथिक' की लालित्यपूर्ण खड़ी बोली भी आश्वस्त करती है। इस तरह श्रीधर पाठक और रामनरेश त्रिपाठी के काव्य से खड़ी बोली हिन्दी में काव्य-रचना की संभावना को बल मिला। इसी काल में अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की 'प्रिय प्रवास' और मैथिली शरण गुप्त की 'भारत-भारती' प्रकाशित हुईं। इन कृतियों के प्रकाशन ने स्वच्छंदतावादी काव्य-धारा के अविरल प्रवाह को बाधित कर दिया। ये दोनों काव्य-कृतियाँ भी खड़ी बोली में ही हैं पर इनकी भाषा 'एकांत वासी योगी' और 'पथिक' की कोमलकांत भाषा से भिन्न है। 'प्रिय प्रवास' मध्य युग के 'काव्य - नायक' कृष्ण के चरित्र का आख्यान है। इसमें कृष्ण के चरित्र की पुनर्जागरणयुगीन आधुनिक व्याख्या भी मिलती है। 'भारत-भारती' में अतीत की गौरवशाली परंपरा का गुणगान है। बाद में मैथिलीशरण गुप्त जी ने प्राचीन पौराणिक आख्यानों को आधार बनाकर अनेक काव्यों की रचना की। उन्हें 'साकेत' की रचना द्वारा आधुनिक-काल में रामकथा की धारा को पुनःप्रवाहित करने का भी श्रेय है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि 'हरिऔध' जी ने कृष्ण को और मैथिलीशरण गुप्त जी ने राम को पुनर्जीवित किया। आधुनिक काव्य में, नामवर सिंह के अनुसार - "खड़ी बोली के इन दो महाकवियों ने आधुनिक युग में राम और कृष्ण का पुनरुद्धार करके सांस्कृतिक पुनर्जागरण की चेतना को सार्थक कर दिया।" मैथिलीशरण गुप्त को राष्ट्र कवि के रूप में उचित ही स्मरण किया जाता है। इस काल के केन्द्रीय व्यक्तित्व आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हैं। श्रीधर पाठक और मैथिलीशरण गुप्त के ऊपर भी उनका यथेष्ट प्रभाव पड़ा था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के व्यक्तित्व के अनुरूप ही इस काल की कविता को ‘इतिवृत्तात्मक' से विभूषित किया जाता है। इतिवृत्तात्मक से तात्पर्य तथ्य-कथन प्रधान और इतिवृत्त - परक होने से है। मैथिलीशरण गुप्त द्वारा पल्लवित पुष्पित राष्ट्रीय-भावना के काव्य का विकास 20वीं शताब्दी के बाद के दशकों में भी खूब हुआ। इस दौर के कवियों में माखनलाल चतुर्वेदी, बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन', सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर आदि प्रमुख हैं। स्वाधीनता संग्राम में जैसे जैसे तीव्रता आती गई, कविता के स्वर में भी प्रखरता बढ़ती गई। राष्ट्रीय उद्बोधन का स्तर ऊँचा उठ गया। साम्राज्यवाद विरोधी भावना में भी तेजी आई। नामवर सिंह राष्ट्रीयकाव्यधारा को स्वाधीनता संग्राम युग के देशव्यापी उत्साह की सबसे ओजस्वी अभिव्यक्ति मानते हैं।   
  3. छायावाद :
    छायावाद नाम से जानी जाने वाली काव्यधारा का विकास बीसवीं सदी के तीसरे दशक से होता है। यह काव्यधारा रामनरेश त्रिपाठी और श्रीधर पाठक द्वारा प्रवर्तित स्वच्छंदतावादी काव्यधारा के विकास की चरम परिणति के रूप में जानी जाती है। छायावाद का विकास राष्ट्रीय आन्दोलन की भावना के प्रसार से जुड़ा हुआ है। 1920 में गाँधी जी द्वारा राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में लेने से स्वाधीनता संग्राम को व्यापक जनाधार प्राप्त हुआ। गाँधी जी ने राजनैतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सत्य और अहिंसा के मार्ग का आह्वान किया। देश में उदारवादी सुधार कार्यक्रमों के बजाय सामंत-विरोधी और साम्राज्य-विरोधी भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। काव्य-सृजन की दृष्टि से कल्पना और भावना को इस दौर में मानो नए पंख लग गए। मानसिक मुक्ति के इस प्रयास में गाँधी जी के अलावा रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम भी अवश्य स्मरणीय है।

  4. प्रारम्भ में छायावाद का खूब विरोध हुआ। लोगों ने स्वच्छंदतावाद और राष्ट्रीय कविता को स्वीकार किया पर छायावादी चेतना को लोग पचा नहीं पाए। छायावाद के क्रान्तिकारी रूप का सूचक है लोगों का अस्वीकार। यदि हम उन लोगों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक विचारों को देखें तो छायावाद की विचारधारा को समझने में आसानी होगी। विरोध करने वालों में पद्मसिंह शर्मा' और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रमुख थे। पद्मसिंह शर्मा को हम बिहारी के प्रशंसक, रीतिवादी कविता के आग्रही, मैथिलीशरण गुप्त को ' भारत-भारती' के लिए प्रेरित करने वाले आर्य समाजी के रूप में जानते हैं। जबकि महावीर प्रसाद द्विवेदी 'सरस्वती' के संपादक थे, मैथिली शरण गुप्त काव्य और कविता में उपदेश, शिक्षा और इतिवृत्तात्मकता के समर्थक थे। अतः हम कह सकते हैं कि एक तरफ छायावादी काव्य-रुचि रीतिवादी सौन्दर्याभिरुचि की विरोधी लग रही थी तो दूसरी ओर छायावाद को उपयोगितावादी नैतिकता और सरल सुगम पद्यात्मकता से भी दिक्कत थी। छायावाद का विरोध करने वाले तीसरे व्यक्ति आ. रामचन्द्र शुक्ल भी थे। आचार्य शुक्ल तुलसी और जायसी के परम प्रशंसक, स्वच्छंदतावाद के समर्थक लेकिन रहस्यवाद के घोर विरोधी थे पर आचार्य शुक्ल उसी भाव जगत में रहते थे जिससे छायावाद का कल्पनालोक उभर रहा था। असल में छायावाद मध्ययुगीन सामंती मूल्यों एवं साहित्य में रीतिवादी और उपयोगितावादी रुचियों का घोर विरोधी था। वह इन्हें जड़ से समाप्त करने की दिशा में सक्रिय था। अतः छायावाद का विरोध स्वाभाविक था।

  5. आधुनिक हिन्दी कविता में छायावाद की विशिष्टता उसकी भाव दृष्टि में निहित है। छायावाद में प्रकृति-चित्रण पर विशेष बल है। यह उल्लेखनीय है कि छायावाद ने प्रकृति के सौन्दर्य को विशेष दृष्टि से देखा। इसे हम विषयनिष्ठ दृष्टि कह सकते हैं। एक आलोचक के अनुसार, "इस विषयनिष्ठ दृष्टि के कारण प्रकृति मन के भावों से रंग जाती है और उस पर कल्पना का रंग चढ़ जाता है।" पंत का 'बादल' ऐसी ही कल्पना सृष्टि का उदाहरण है। प्रसाद जी उस प्रकृति पर रहस्यमयता का झीना आवरण डालकर उसे जादुई बनाकर अभिव्यक्त करते हैं। उनके काव्य संसार में प्रकृति और नारी दोनों ही धुंधले रूप में दिखायी देते हैं। 
    नामवर सिंह कहते हैं, “प्रसाद की कविता में सौंदर्य 'गोधूलि में मुख पर घूँघट डाले और अंचल में दीप छिपाए' हुए आता है अथवा 'कनक किरण के अन्तराल में लुक छिपकर चलता है।' सम्भवत: ऐसी ही कविताओं के -प्रवृत्ति को छायावाद की संज्ञा दी गई और कुछ विद्वानों ने उसे 'स्थूल के विरुद्ध सूक्ष्म का कारण इस काव्य- विद्रोह' कहा।"

  6. छायावाद को उसकी विषयनिष्ठ दृष्टि के कारण प्रगीत काव्य माना जाता है। इसमें वस्तु-वर्णन और वृत्तांत कथन के स्थान पर आंतरिक भाव-व्यंजना पर बल दिया गया है। छायावाद की समूची स्वर-भंगिमा को हम 'तुम और मैं' के द्वारा व्यक्त कर सकते हैं। 'तुम और मैं' केवल कविता का शीर्षक ही नहीं बल्कि छायावादी स्वर का पारिभाषिक पद है। छायावाद गीतों में 'मैं' के रूप में व्यक्त प्रगीत नामक एक विशेष व्यक्ति है। इसीलिए छायावाद को व्यक्तिवाद का प्रतिष्ठापक काव्य भी प्रायः कहा जाता है। निराला की कविताओं में इस व्यक्तिवाद के चरम विद्रोही रूप की अभिव्यक्ति मिलती है। उनकी 'बादल राग' कविता ऐसे ही 'विप्लवी वीर' का आह्वान करती है।
    छायावाद को प्रगीत काव्य कहने में इस दौर में लिखी गईं 'परिवर्तन', 'प्रलय की छाया', 'कामायनी' और 'राम की शक्तिपूजा' आदि लम्बी कविताएं बाधा उत्पन्न करती हैं।

  7. छायावाद का समय 1918-19 से लेकर 1936 तक प्रायः स्वीकार किया जाता है। इन सोलह-सत्रह वर्षों के अल्पकाल में ही छायावादी काव्यधारा ने खड़ी बोली कविता में काव्यात्मक अभिव्यंजना की दृष्टि से अपार संभावनाएं उपस्थित कर दीं। छायावादी कवियों के हाथों खुरदरी प्रतीत होने वाली खड़ी बोली कोमलता और माधुर्य में ब्रजभाषा को भी पीछे छोड़ देती है। बिम्ब विधान ने भाषा को समृद्ध किया और नई-नई लाक्षणिक उक्तियों से भाषा अधिक व्यंजक हुई। छायावाद में नए छंदों और नए शब्दों की सृष्टि खूब हुई।

  8. छायावाद को हिन्दी में भक्तिकाव्य के बाद सबसे श्रेष्ठ काव्ययुग माना जाता है। छायावाद के प्रमुख कवियों में – प्रसाद, निराला, पन्त और महादेवी वर्मा हैं। इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- पल्लव, गुंजन, परिमल, अनामिका, आँसू, कामायनी और यामा आदि ।
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    छायावाद के परवर्ती दिनों में इसके समानांतर एक और काव्यधारा प्रवाहित हो रही थी जिसमें 'जवानी' की मौज मस्ती तथा लापरवाही को व्यक्त किया गया था। शुरुआत इसकी बच्चन की मशहूर कृति 'मधुशाला' हुई थी। आगे चलकर इसमें नरेन्द्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', भगवती चरण वर्मा, शिवमंगल सिंह 'सुमन' आदि भी शामिल हुए। यह काव्य-प्रवृत्ति भी रोमांटिक ही थी, किन्तु इसमें हृदय की सहज अनुभूतियों की अभिव्यक्ति पर छायावाद से कहीं अधिक बल दिया गया। इसकी भाषा बोलचाल के मुहावरे के अधिक निकट है। इसमें वैयक्तिकता और निराशा का स्वर भी अधिक तीखा है। लोकप्रिय गीतों के लिए यह धारा विशेष रूप से स्मरणीय है।


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