शिवताण्डव स्तोत्रम् एक अत्यंत प्रसिद्ध संस्कृत स्तोत्र है, जिसकी रचना रावण ने भगवान शिव की स्तुति में की थी। यह स्तोत्र शिवजी के तांडव स्वरूप का वर्णन करता है, जो शक्ति, सौंदर्य और भक्ति से परिपूर्ण है। नीचे इसका मूल संस्कृत पाठ प्रस्तुत है:
आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं , पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति:।
सञ्चार: पदयो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्राणि सर्वा गिरो यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम्॥ 4॥
शिवताण्डव स्तोत्रम्
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्॥ 1 ॥
अर्थ:
जिनकी जटाओं से बहती हुई गंगा की धारा उनके कंठ को पवित्र करती है, जिनके गले में विशाल और भयंकर साँप की माला लटक रही है, और जिनके डमरू की आवाज़ "डमडम" गूंज रही है—ऐसे प्रचंड तांडव करने वाले शिवजी हमारा कल्याण करें।
जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम॥ 2 ॥
अर्थ:
जिनकी जटाओं में घूमती हुई गंगा की लहरें सुंदर लहरियाँ बना रही हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की लपटें प्रज्वलित हो रही हैं, और जिनके सिर पर किशोर चंद्र विराजमान हैं—ऐसे शिवजी में मेरी हर क्षण भक्ति बनी रहे।
जिनकी जटाओं में घूमती हुई गंगा की लहरें सुंदर लहरियाँ बना रही हैं, जिनके मस्तक पर अग्नि की लपटें प्रज्वलित हो रही हैं, और जिनके सिर पर किशोर चंद्र विराजमान हैं—ऐसे शिवजी में मेरी हर क्षण भक्ति बनी रहे।
धराधरेन्द्रनन्दिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे।
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि॥ 3 ॥
अर्थ:
जो हिमालयराज की कन्या पार्वती के प्रियतम हैं, जिनकी करुणा दृष्टि से बड़े से बड़े संकट शांत हो जाते हैं, और जो नग्न (दिगम्बर) होकर विचरण करते हैं—ऐसे शिव में मेरा मन रमण करे।
जो हिमालयराज की कन्या पार्वती के प्रियतम हैं, जिनकी करुणा दृष्टि से बड़े से बड़े संकट शांत हो जाते हैं, और जो नग्न (दिगम्बर) होकर विचरण करते हैं—ऐसे शिव में मेरा मन रमण करे।
जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि॥ 4 ॥
अर्थ:
जिनकी जटाओं में पीले रंग के फणवाले सर्प लिपटे हुए हैं, जिनकी चमक से दिशाओं की देवियाँ भी सजती हैं, और जिनकी चाम की वस्त्रधारी देह गजब की छटा बिखेरती है—ऐसे भूतनाथ शिव में मेरा मन आनंद पाए।
जिनकी जटाओं में पीले रंग के फणवाले सर्प लिपटे हुए हैं, जिनकी चमक से दिशाओं की देवियाँ भी सजती हैं, और जिनकी चाम की वस्त्रधारी देह गजब की छटा बिखेरती है—ऐसे भूतनाथ शिव में मेरा मन आनंद पाए।
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः।
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः॥ 5 ॥
अर्थ:
जिनके चरणों की धूल से इंद्र आदि देवताओं का मस्तक भी गौरवान्वित होता है, और जो सर्पों से जटाओं को बाँधे हैं, तथा जिनके सिर पर चंद्रमा सुशोभित है—ऐसे शिव हमें सदा ऐश्वर्य प्रदान करें।
जिनके चरणों की धूल से इंद्र आदि देवताओं का मस्तक भी गौरवान्वित होता है, और जो सर्पों से जटाओं को बाँधे हैं, तथा जिनके सिर पर चंद्रमा सुशोभित है—ऐसे शिव हमें सदा ऐश्वर्य प्रदान करें।
ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जयस्फुलिङ्गभा निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम्।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महा-कपालिसम्पदेशिरोजटालमस्तुनः॥ 6 ॥
अर्थ:
जिनके ललाट से अग्नि की भयानक लपटें निकलती हैं, जो कामदेव को भस्म कर चुके हैं, और जो चंद्रमा से अलंकृत हैं—ऐसे महाकपाली शिव हमारे कल्याणकारी हों।
जिनके ललाट से अग्नि की भयानक लपटें निकलती हैं, जो कामदेव को भस्म कर चुके हैं, और जो चंद्रमा से अलंकृत हैं—ऐसे महाकपाली शिव हमारे कल्याणकारी हों।
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके।
धराधरेन्द्रनन्दिनी कुचाग्रचित्रपत्रक प्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम॥ 7 ॥
अर्थ:
जिनके ललाट की अग्नि प्रचंड है, जो कामदेव के शत्रु हैं, और जिनकी अर्धांगिनी पार्वती की सुंदरता अतुलनीय है—ऐसे त्रिनेत्रधारी शिव में मेरी भक्ति बनी रहे।
जिनके ललाट की अग्नि प्रचंड है, जो कामदेव के शत्रु हैं, और जिनकी अर्धांगिनी पार्वती की सुंदरता अतुलनीय है—ऐसे त्रिनेत्रधारी शिव में मेरी भक्ति बनी रहे।
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत्कु हूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः।
निलिंपनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः॥ 8 ॥
अर्थ:
जो नवीन मेघ के समान हैं, जिनकी ग्रीवा गगन के अंधकार को पराजित कर देती है, और जो गंगा को सिर पर धारण करते हैं—ऐसे समस्त संसार का भार उठाने वाले शिव हमें संपत्ति दें।
जो नवीन मेघ के समान हैं, जिनकी ग्रीवा गगन के अंधकार को पराजित कर देती है, और जो गंगा को सिर पर धारण करते हैं—ऐसे समस्त संसार का भार उठाने वाले शिव हमें संपत्ति दें।
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा वलम्बिकण्ठकन्दली रुचिप्रबद्धकन्धरम्।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे॥ 9 ॥
अर्थ:
जिनका कंठ नीले कमल के समान है, जो काम, त्रिपुर, संसार, यज्ञ, गजराज और अंधकासुर का संहार कर चुके हैं—ऐसे अंत को भी जीतने वाले शिवजी को मैं प्रणाम करता हूँ।
जिनका कंठ नीले कमल के समान है, जो काम, त्रिपुर, संसार, यज्ञ, गजराज और अंधकासुर का संहार कर चुके हैं—ऐसे अंत को भी जीतने वाले शिवजी को मैं प्रणाम करता हूँ।
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृम्भणा मधुव्रतम्।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे॥ 10 ॥
अर्थ:
जो संपूर्ण कलाओं के स्रोत हैं, जिनकी मधुरता अमृत के समान है, और जो यमराज (मृत्यु के देवता) को भी जीत चुके हैं—ऐसे शिवजी को मैं भजता हूँ।
जो संपूर्ण कलाओं के स्रोत हैं, जिनकी मधुरता अमृत के समान है, और जो यमराज (मृत्यु के देवता) को भी जीत चुके हैं—ऐसे शिवजी को मैं भजता हूँ।
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट्।
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः॥ 11 ॥
अर्थ:
जिनकी जटाओं में सर्प फुफकारते हैं, जिनके भाल में अग्नि जल रही है, और जिनकी तांडव नृत्य ध्वनि सारा ब्रह्मांड गुंजा देती है—ऐसे प्रचंड तांडव करने वाले शिवजी जय हों!
जिनकी जटाओं में सर्प फुफकारते हैं, जिनके भाल में अग्नि जल रही है, और जिनकी तांडव नृत्य ध्वनि सारा ब्रह्मांड गुंजा देती है—ऐसे प्रचंड तांडव करने वाले शिवजी जय हों!
यह स्तोत्र गेय और छंदबद्ध शैली में लिखा गया है, और शिवभक्तों में अत्यंत लोकप्रिय है। इसे नियमित जपने से मानसिक शांति, आत्मबल और शिवकृपा प्राप्त होती है।