।। सुरभि स्तोत्रम् ।।
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणके प्रकृतिखण्डमें महेन्द्रकृत यह स्तोत्र है । इस स्तोत्र का पाठ करने से धन,लक्ष्मी,वैभव एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।
महेन्द्र उवाच
महेन्द्र बोले - देवी एवं महादेवी सुरभी को बार-बार नमस्कार है। जगदम्बिके ! तुम गौओं की बीजस्वरूपा हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम श्रीराधा को प्रिय हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम लक्ष्मी की अंशभूता हो, तुम्हें बार-बार नमस्कार है। श्रीकृष्णप्रिया को नमस्कार है। गौओं की माता को बार-बार नमस्कार है ।
जो सबके लिये कल्पवृक्षस्वरूपा तथा श्री, धन और बुद्धि प्रदान करने वाली हैं, उन भगवती सुरभी को बार-बार नमस्कार है। शुभदा, प्रसन्ना और गोप्रदायिनी सुरभीदेवी को बार-बार नमस्कार है। यश और सौख्य प्रदान करने वाली धर्मज्ञादेवी को बार-बार नमस्कार है ।
इस प्रकार स्तुति सुनते ही सनातनी जगज्जननी भगवती सुरभी संतुष्ट और प्रसन्न हो उस ब्रह्मलोकमें ही प्रकट हो गयीं । देवराज इन्द्र को परम दुर्लभ मनोवांछित वर देकर वे पुनः गोलोक को चली गयीं, देवता भी अपने-अपने स्थानों को चले गये ।
नारद ! फिर तो सारा विश्व सहसा दूधसे परिपूर्ण हो गया। दूधसे घृत बना और घृतसे यज्ञ सम्पन्न होने लगे तथा उनसे देवता संतुष्ट हुए ।
उसे सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान करने तथा अखिल यज्ञोंमें दीक्षित होनेका फल सुलभ होगा। ऐसा पुरुष इस लोकमें सुख भोगकर अन्तमें भगवान् श्रीकृष्णके धाममें चला जाता है ।
चिरकालतक वहाँ रहकर भगवान्की सेवा करता रहता है। हे ब्रह्मपुत्र नारद ! उसे पुनः इस संसारमें नहीं आना पड़ता ।
॥ इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणके प्रकृतिखण्डमें महेन्द्रकृत सुरभिस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥